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प्राचीन भारतीय के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत क्या होते है

प्राचीन भारतीय के प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोत क्या होते है For upsc exam 

प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए दो भिन्न प्रकार के स्रोत उपलब्ध हैं :- पुरातात्विक एवं साहित्यिक ।
पुरातात्विक स्रोत खुदाई या अन्य तरीकों से प्राप्त होता हैं जिसमे छेड़खानी की संभावना कम होती है इस कारण से यह अधिक प्रामाणिक हैं तो वही साहित्यिक स्रोत किसी क्षेत्र विशेष की अधिक व्यापक जानकारी प्राप्त करती है। साहित्यिक स्रोत से प्राचीन काल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की विस्तृत सूचना प्राप्त होती है। साहित्यिक स्रोत दो प्रकार के हैं
1.प्राथमिक स्रोत 
2.द्वितीयक स्रोत

1.प्राथमिक स्रोत:-


ये प्रमाण उसी काल से संबंद्ध होते हैं तथा उस काल की किसी विशिष्ट घटना की आन्तरिक सच्चाई को प्रकट करते हैं।  अर्थात प्राथमिक स्रोत उस लिखित प्रमाण अथवा भौतिक पदार्थ को कहा जाता है जिसकी रचना अथवा निर्माण उस काल में हुआ है, जिस काल का अध्ययन किया जा रहा है। 
प्राथमिक स्रोत में निम्नलिखित चीजें शामिल होती हैं जैसे कि, मौलिक दस्तावेज, राजकीय रिकार्ड, पांडुलिपि, पत्र, जीवनी लेखन आदि। रचनात्मक लेखन कविता, नाटक, संगीत, कला, अवशेष एवं कलाकृतियाँ मृदभांड, फर्नीचर, कपड़े, भवन - आदि । -


2.द्वितीयक स्रोत:-


द्वितीयक स्रोत प्राथमिक स्रोत की व्याख्या और विश्लेषण प्रस्तुत
करते हैं। अगर एक तरह से देखा जाए तो द्वितीयक स्रोत ,प्राथमिक स्रोत से एक अथवा कई कदम अलग होता है। द्वितीयक स्रोत प्राथमिक स्रोत से भिन्न होता है।  द्वितीयक स्रोत में प्राथमिक स्रोत के चित्र अथवा उद्धरण हो सकते हैं।
 द्वितीयक स्रोत में पुस्तक, आलोचना, टीकाएँ(commentaries) आदि शामिल होती हैं। प्राथमिक स्रोत शोधकर्त्ताओं को अपरिवर्तित तथा मौलिक सूचनाओं तक पहुँचाता है।
 प्राथमिक स्रोत शोधकर्त्ताओं से ये अपेक्षा रखते हैं कि वे मौलिक स्रोत से अन्तर्क्रिया कर आवश्यक सूचना प्राप्त करें। दूसरी तरफ, द्वितीयक स्रोत प्राथमिक स्रोत का संपादित एवं परिवर्तित संस्करण होता है। ये संबंधित विषय पर किसी अन्य के विचार प्रस्तुत करते हैं। छात्र एवं शोधकर्त्ताओं के लिए दोनों प्रकार के स्रोतों का महत्त्व है।
अंत में हम कह सकते है की द्वितीयक स्रोत ,प्राथमिक स्रोत को और अधिक सार्थक और संशोधित रूप प्रस्तुत करता है जिससे इतिहास को समझने मे सरलता होती है।

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