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पवन के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए?(Describe the topography formed by wind erosion).

पवन के अपरदन द्वारा निर्मित स्थलाकृतियों:-


( 1 ) अपवाह बेसिन या वातगर्त (runoff basin) -

  •  पवन द्वारा असंगठित तथा ढीले कणों के उड़ा लिये जाने से निर्मित गर्त को अपवाहन बेसिन कहते हैं । चूँकि इन गर्तों का निर्माण पवन द्वारा होता है , अतः इन्हें पवन गर्त या वातगर्त भी कहते हैं । 
  • इनका आकार प्रायः तस्तरीनुमा होता है ।
  •  सहारा के रेगिस्तान , कालाहारी , मंगोलिया तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी शुष्क भागों में पवन निर्मित अनेक गर्तों के उदाहरण पाये गये हैं । 
  • संयुक्त राज्य अमेरिका के ग्रेट प्लेन्स में लघु आकार वाली अपवाहन बेसिनों को बफैलो वालोस तथा मंगोलिया में वृहदाकार बेसिनों को पांग कियांग कहते हैं । 
( 2 ) इन्सेलवर्ग (Inselvarg)- 
  • मरुस्थलों में शैलों के अपक्षय तथा अपरदन के कारण कोमल शैल आसानी से कट जाती है परन्तु कठोर शैल के अवशेष भाग ऊँचे - ऊँचे टीलों के रूप में बच जाते हैं । 
  • इस तरह के टीलों या टापुओं को इन्सेलवर्ग कहा जाता है । 
  • इन्सेलवर्ग के पार्श्व ( किनारे ) तिरछे ढाल वाले होते हैं । 
  • बोर्नहार्ट नामक विद्वान् ने इस प्रकार के इन्सेलवर्ग के निर्माण की क्रिया का पता लगाने का कार्य प्रारम्भ किया था । इस कारण इन्सेलवर्ग को बोर्नहार्ट भी कहा जाता है । 
  • इन्सेलवर्ग प्रायः गुम्बदाकार हुआ करता है । इन्सेलवर्ग का निर्माण ग्रेनाइट या नीस नामक चट्टानों के अपरदन तथा अपक्षय द्वारा होता है । 
  • इनका ढाल तीव्र होता है तथा इनके आधार पर मिट्टी आदि का निक्षेप नहीं मिलता है । बेली बिलिस के अनुसार इन्सेलवर्ग अनावृत्त या खुले गुम्बद के समान होते हैं । 

( 3 ) छत्रक शिला -

  • मरुस्थलीय भागों में यदि कठोर शैल के रूप में ऊपरी आवरण के नीचे कोमल शैल लम्बवत् रूप में मिलती है तो उस पर पवन अपघर्षण के प्रभाव से विचित्र प्रकार के स्थलरूप निर्माण होता है । 
  • तीव्र पवन के साथ रेत तथा धूलिकणों की प्रचुरता पवन के निचले स्तर में अर्थात् सतह से फीट ( 182 सेमी . ) की ऊँचाई तक ही होती है । ऊपर जाने पर इनकी मात्रा कम होती जाती है । इस कारण पवन द्वारा चट्टान के निचले भाग में अत्यधिक अपघर्षण द्वारा उसका आधार कटने लगता है , जबकि उसका ऊपरी भाग अप्रभावित रहता है ।
  •  यदि पवन एक ही दिशा से चलती है तो चट्टानों का कटाव केवल एक ही दिशा में हो पाता है ,परन्तु यदि पवन कई दिशाओं से चलती है तो चट्टान का चिचला भाग चारों तरफ से अत्यधिक कट जाने के कारण पतला हो जाता है ,जबकि ऊपरी भाग अप्रभावित रहने के कारण अधिक विस्तृत रहता है । 
  • इस तरह एक छतरीनुमा स्थलरूप का निर्माण होता है , जिसे छत्रक शिला कहते हैं । छत्रक शिला को सहारा के रेगिस्तान में गारा कहा जाता है ।

 ( 4 ) भूस्तम्भ (pillar)-

  • शुष्क प्रदेश में जहाँ पर असंगठित तथा कोमल शैल के ऊपर कठोर तथा प्रतिरोधी शैल का आवरण होता है , वहाँ पर इस आवरण के कारण नीचे की कोमल शैल का अपरदन नहीं हो पाता है , क्योंकि ऊपरी कटोर शैल के आवरण से निचली कोमल शैल को संरक्षण प्राप्त होता है । 
  • परन्तु समीपी कोमल चट्टान का अपरदन होता रहता है , जिस कारण अगल - बगल की शैल कट कर हट जाती है और कठोर शैल के आवरण वाला भाग एक स्तम्भ के रूप में सतह पर दिखायी पड़ता है इसे भूस्तम्भ कहा जाता है । 

( 5 ) ज्यूजेन (jugen)- 

  • मरुस्थली भाग में यदि कठोर तथा कोमल शैलों की परतें ऊपर नीचे एक दूसरे के समानान्तर होती है तो अपक्षय तथा वायु द्वारा अपरदन के कारण विचित्र प्रकार के भाग कम स्थलरूपों का निर्माण हो जाता है , जो ढक्कनदार दावात के समान होते हैं 
  • अर्थात् उनका ऊपरी चौड़ा तथा निचला भाग अधिक चौड़ा होता है । परन्तु इन स्थलरूपों के ऊपरी भाग पर कठोर शैल का आवरण होता है तथा इनका ऊपरी भाग समतल होता है । 
  • ऐसे स्थलरूपों को ज्यूजेन कहा जाता है । इनका निर्माण प्रायः ऐसे मरुस्थली भागों में होता है , जहाँ पर रात के समय तापमान कम हो जाने से शैलों की सुराखों में स्थित जल जम जाता है । 
  • यदि मरुस्थली भाग में कठोर तथा कोमल चट्टानों की परतें क्षैतिज दिशा में समानान्तर रूप में क्रम से मिलती है अर्थात् कठोर शैल की परत के नीचे कोमल परत का विस्तार होता है तो ऊपरी कठोर शैल की परत की सन्धियों तथा छिद्रों में ओस भर जाती है जो दिन में सूर्य की किरणों से सुरक्षित रहती हैं । रात के समय यह ओस हिम के रूप में बदल जाती है ।
  •  इस कारण उसमें प्रसार होने से शैल की सन्धियों पर दाब पड़ने से वे विस्तृत हो जाती हैं तथा ऊपरी कठोर शैल का कुछ भाग विघटित होकर टूट - फूट जाता है ।
  •  पवन उस शिलाचूर्ण को अपने अपवाहन कार्य द्वारा उड़ा ले जाती है । इस क्रिया के कारण स्थान - स्थान पर निचली कोमल शैल की परत उधड़ जाती है , जिस पर पवन अपरदन द्वारा उसे घिस करके शिलाचूर्णों को उड़ाती रहती है । जब कोमल शैल की परत कट जाती है तो उसके नीचे की कठोर शैल उघड़ जाती है । इस कठोर शैल की सन्धियों पर पुनः तुषार की क्रिया होती है जिससे नीचे की ओर छिद्र का विस्तार होता जाता है । 
  • उपर्युक्त क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण ज्यूजेन नामक स्थलरूप का विकास हो जाता है । इस तरह ज्यूजेन का निर्माण अपक्षय तथा विशेषक अपरदन के फलस्वरूप होता है । ज्यूजेन की ऊँचाई 90 से 150 फीट तक मिलती है । 

( 6 ) यारडंग (Yardung)-

  • यारडंग की रचना ज्यूजेन के विपरीत होती है । जब कोमल तथा कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत् दिशा में मिलते हैं तो पवन कठोर शैल की अपेक्षा मुलायम शैल को शीघ्र अपरदित करके उड़ा ले जाती है ।
  •  इस प्रकार कठोर शैलों के मध्य कोमल शैलों के अपरदित होकर उड़ जाने के कारण कठोर चट्टानों के भाग खड़े हो जाते हैं । 
  • इन शैलों के पाश्र्व में पवन द्वारा कटाव होने से नालियाँ बन जाती हैं । इस तरह के स्थलरूप को यारडंग कहते हैं । यारडंग प्राय : पवन की दिशा में समानान्तर रूप में होते हैं । इनकी ऊंचाई 20 फीट तक तथा चीड़ाई 30 से 120 फीट तक होता है ।
  •  यारडग का निर्माण निश्चित रूप से पवन के अपघर्षण कार्य द्वारा होता है ।

( 7 ) ड्राइकान्टर (drycenter)- 

  • पथरीले मरुस्थलों में सतह पर पड़े शिलाखण्डों पर पवन से अपरदन द्वारा खरोंचे पड़ जाती हैं , जिस कारण शिलाखण्ड या पत्थर के टुकड़ों पर तरह - तरह की नक्काशी हो जाती है । 
  • यदि पवन कई दिशाओं से होकर चलती है तो इन शिलाखण्डों की आकृति चतुष्फलक जैसी हो जाती है , जिसका एक फल या फलक भूपृष्ठ पर होता है तथा शेष तीन फलक बाहर की ओर होते हैं ।
  •  इस प्रकार बाहर की ओर निकले तीन फलक या पाश्र्व वाले टुकड़ों को त्रिकोणाकार कंकड़ या ड्राइकान्टर कहते हैं । 
  • इन टुकड़ों पर पवन के थपेड़ों से उत्पन्न खरोंचे स्पष्ट नजर आती हैं । तीन फलक वाले बोल्डर को ड्राइकान्टर तथा 8 अपघर्षित फलक वाले बोल्डर को वेन्टीफैक्ट कहते हैं । 

( 8 ) जालक या जालीदार शिला (reticulated rock)-

  • मरुस्थली भागों में जब सशक्त पवन के सामने ऐसी शिलाएँ पड़ जाती हैं , जिनकी संरचना विभिन्न स्वभाव वाली चट्टानों से हुई होती है 
  • अर्थात् जिनके विभिन्न भागों में कठोरता की पर्याप्त भिन्नता होती है तो पवन रेत कणों की सहायता से अपघर्षण द्वारा शैल के कोमल भागों को अपरदित करके उड़ा ले जाती है , परन्तु कठोर भाग यथास्थान स्थिर रहते हैं । 
  • इस प्रकार के अपरदन के कारण शैल भाग में जाली का निर्माण हो जाता है । इस तरह की शैल को जालीदार शैल या जालक शैल या आश्मिक जालक कहते हैं । 

( 9 ) पवन - वातायन तथा खिड़की-

  •  जालीदार शिला में पवन के अपरदन द्वारा पवनोन्मुखी भाग में छिद्र हो जाता है ।
  •  पवन धीरे - धीरे इस छिद्र के विघटित पदार्थों को उड़ा - उड़ाकर उसे विस्तृत करती जाती है । एक लम्बे समय तक अपरदन के कारण यह छिद्र शैल के आर - पार हो जाता है ।
  •  शैल के इस आर - पार छिद्र को पवन खिड़की या पवन - वातायन कहा जाता है । इस खिड़की से होकर अपरदन द्वारा चट्टान का शनैः शनैः नीचे तक कटाव हो जाता है परन्तु ऊपरी भाग छत के रूप में वर्तमान रहता है । इस तरह एक महराब की आकृति का निर्माण होता है । 
  • इसे पुल भी कहा जाता है ।

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