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पंचायती राज का विकास कैसे हुआ -How did Panchayati Raj develop

पंचायती राज का विकास कैसे हुआ -How did Panchayati Raj develop?2023 UPSC 

बलवंत राय मेहता समिति

जनवरी 1957 में भारत सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा (1953) द्वारा किए कार्यों की जांच और उनके बेहतर ढंग से कार्य करने के लिए उपाय सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति के अध्यक्ष बलवंत राय मेहता थे। समिति ने नवंबर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी और 'लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण (स्वायत्तता)' की योजना की सिफारिश की, जो कि अंतिम रूप से पंचायती राज के रूप में जाना गया। समिति

द्वारा दी गई विशिष्ट सिफारिशें निम्नलिखित हैं: 1. तीन स्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना-गाव स्तर पर

ग्राम पंचायत ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद् ये तीनों स्तर आपस में अप्रत्यक्ष चुनाव द्वारा गठन जुड़े होने चाहिये।

2. ग्राम पंचायत की स्थापना प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा होना चाहिए, जबकि पंचायत समिति और जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए। 3. सभी योजना और विकास के कार्य इन निकायों को सौंपे जाने चाहिए।

4. पंचायत समिति को कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद को सलाहकारी, समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय होना चाहिए।
5. 5. जिला परिषद का अध्यक्ष, जिलाधिकारी होना चाहिए।

6. इन लोकतांत्रिक निकायों में शक्ति तथा उत्तरदायित्व का वास्तविक स्थानांतरण होना चाहिए।

7. इन निकायों को पर्याप्त स्रोत मिलने चाहिए ताकि ये अपने

कार्यों और जिम्मेदारियों को संपादित करने में समर्थ हो सकें। 8. भविष्य में अधिकारों के और अधिक प्रत्यायन के लिए एक पद्धति विकसित की जानी चाहिए। NOC

समिति की इन सिफारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा जनवरी 1958 में स्वीकार किया गया। परिषद ने किसी विशिष्ट प्रणाली या नमूने पर जोर नहीं दिया और यह राज्यों पर छोड़ दिया ताकि वे अपनी स्थानीय स्थिति के अनुसार इन नमूनों को विकसित करें। किंतु बुनियादी सिद्धांत और मुख्य आधारभूत विशेषताएं पूरे देश में समान होनी चाहिए। राजस्थान देश का पहला राज्य था, जहां पंचायती राज की स्थापना

हुई। इस योजना का उद्घाटन 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया। - इसके बाद आंध्र प्रदेश ने इस योजना को 1959 में लागू किया। इसके बाद अधिकांश राज्यों ने इस योजना को प्रारंभ किया।

यद्यपि 1960 दशक के मध्य तक बहुत-से राज्यों ने पंचायती राज संस्थाएं स्थापित कीं। फिर भी राज्यों की इन संस्थाओं में स्तरों की संख्या, समिति और परिषद की सापेक्ष स्थिति, उनका कार्यकाल, संगठन, कार्य, राजस्व और अन्य तरीकों में अंतर था। उदाहरण के लिए राजस्थान ने त्रिस्तरीय पद्धति अपनाई जबकि तमिलनाडु ने द्विस्तरीय पद्धति अपनाई। पश्चिमी बंगाल ने चार स्तरीय पद्धति अपनाई। इसके अलावा, राजस्थान- आंध्र-प्रदेश पद्धति में पंचायत समिति मजबूत थी क्योंकि नियोजन और विकास की इकाई ब्लॉक थी, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात पद्धति में, जिला परिषद शक्तिशाली थी क्योंकि योजना और विकास की इकाई जिला थी। कुछ राज्यों ने न्याय पंचायत की भी स्थापना की, जो छोटे दीवानी या आपराधिक मामलों के लिए थी।
अशोक मेहता समिति

दिसंबर 1977 में, जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में पंचायती राज संस्थाओं पर एक समिति को गठन किया। इसने अगस्त 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंपी और देश में पतनोन्मुख पंचायती राज पद्धति को पुनर्जीवित और मजबूत करने हेतु 132 सिफारिशें कीं। इसकी मुख्य सिफारिशें इस प्रकार हैं:

1. त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना चाहिए। जिला परिषद जिला स्तर पर, और उससे नीचे मंडल पंचायत में 15,000 से 20,000 जनसंख्या वाले गांवों के समूह होने चाहिए।

2. राज्य स्तर से नीचे लोक निरीक्षण में विकेंद्रीकरण के लिए जिला ही प्रथम बिंदु होना चाहिए।

3. जिला परिषद कार्यकारी निकाय होना चाहिए और वह राज्य स्तर पर योजना और विकास के लिए जिम्मेदार बनाया जाए। 4. पंचायती चुनावों में सभी स्तर पर राजनीतिक पार्टियों की आधिकारिक भागीदारी हो ।

5. अपने आर्थिक स्रोतों के लिए पंचायती राज संस्थाओं के पास कराधान की अनिवार्य शक्ति हो।

6. जिला स्तर के अभिकरण और विधायिकों से बनी समिति द्वारा संस्था का नियमित सामाजिक लेखा परीक्षण होना चाहिए ताकि यह ज्ञात हो सके कि सामाजिक एवं आर्थिक रूप से सुभेद्य समूहों के लिए आवंटित राशि उन तक पहुंच रही है अथवा नहीं।

7. राज्य सरकार द्वारा पंचायती राज संस्थाओं का अतिक्रमण नहीं किया जाना चाहिए। आवश्यक अधिक्रमण करने की दशा में अधिक्रमण के छह महीने के भीतर चुनाव हो जाने चाहिए।

8. 'न्याय पंचायत' को विकास पंचायत से अलग निकाय के रूप में रखा जाना चाहिए। एक योग्य न्यायाधीश द्वारा इनका सभापतित्व किया जाना चाहिए।

9. राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी द्वारा मुख्य चुनाव आयुक्त

के परामर्श से पंचायती राज चुनाव कराए जाने चाहिए।

10. विकास के कार्य जिला परिषद को स्थानांतरित होने चाहिए और सभी विकास कर्मचारी इसके नियंत्रण और देखरेख में होने चाहिए।

11. पंचायती राज के समर्थन में लोगों को प्रेरित करने में स्वैच्छिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका होना चाहिए।

12. पंचायती राज संस्थाओं के मामलों की देखरेख के लिए राज्य मंत्रिपरिषद में एक मंत्री की नियुक्ति होनी चाहिए।

13. उनकी जनसंख्या के आधार पर अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए स्थान आरक्षित होना चाहिए।

14. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिए। इससे उन्हें उपयुक्त हैसियत (पवित्रता एवं महत्ता) के साथ ही सतत् सक्रियता का आश्वासन मिलेगा।

समिति का कार्यकाल पूरा होने से पूर्व, जनता पार्टी सरकार के गिर जाने के कारण, केंद्रीय स्तर पर अशोक मेहता समिति की सिफारिशों पर कोई कार्यवाही नहीं की जा सकी। फिर भी तीन राज्य कर्नाटक, प. बंगाल और आंध्र प्रदेश ने अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखकर पंचायती राज संस्थाओं के पुनरुद्धार के लिए कुछ कदम उठाए।

जी.वी.के. राव समिति

ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलम कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के लिए योजना आयोग द्वारा 1985 में जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया किया। समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि विकास प्रक्रिया दफ्तरशाही युक्त होकर पंचायत राज से विच्छेदित हो गई है। विकास प्रशासन के लोकतंत्रीकरण के विपरीत उसके नौकरशाहीकरण की इस प्रक्रिया के कारण पंचायती राज संस्थाएं कमजोर हो गईं और परिणामस्वरूप इसे 'बिना जड़ की घास' कहा गया। अतः समिति ने पंचायती राज पद्धति को मजबूत और पुनर्जीवित करने हेतु विभिन्न सिफारिशें कीं, जो इस प्रकार थीं:

1. जिला स्तरीय निकाय, अर्थात् जिला परिषद को लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिये। यह कहा गया कि "नियोजन एवं विकास की उचित इकाई जिला है तथा जिला परिषद को उन सभी विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाया जाना चाहिये, जो उस स्तर पर संचालित किए जा सकते हैं।"

2. जिला एवं स्थानीय स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं को विकास कार्यों के नियोजन, क्रियान्वयन एवं निगरानी में महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की जानी चाहिये।

3. प्रभावी जिला नियोजन विकेंद्रीकरण के लिये राज्य स्तर के कुछ नियोजन कार्यों को जिला स्तर पर हस्तांतरित किया जाना चाहिये।

4. एक जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन किया जाना चाहिये। इसे जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिए तथा उसे जिला स्तर के सभी विकास विभागों का प्रभारी होना चाहिये।

5. पंचायती राज संस्थानों में नियमित निर्वाचन होने चाहिये। यह पाया गया कि 11 राज्यों में एक अथवा अधिक स्तरों के लिए ये चुनाव समय से संपन्न नहीं कराये गए हैं।

इस प्रकार समिति ने विकेन्द्रित क्षेत्रीय प्रशासन की अपनी योजना में पंचायती राज को स्थानीय आयोजना एवं विकास में प्रमुख भूमिका प्रदान की। यहां इसी बिन्दु पर जी. वी. के. राव समिति रिपोर्ट 1986 प्रखंड स्तरीय आयोजना पर दांतेवाला समिति, 1978 तथा जिला आयोजना पर हनुमंत राव समिति रिपोर्ट 1984 से अलग है। दोनों समितियों में यह सुझाया गया था कि मूलभूत विकेन्द्रित आयोजना का कार्य जिला स्तर पर सम्पन्न किया जाना चाहिए। हनुमंत राव समिति ने जिला अधिकारी अथवा किसी मंत्री के अधीन अलग जिला योजना निकायों की वकालत की थी। इन दोनों संदर्शो (मॉडल) में जिलाधिकारी की विकेन्द्रित आयोजना में महत्वपूर्ण भूमिका बनती है। हालांकि समिति का कहना था कि विकेन्द्रित आयोजना कि इस प्रक्रिया में पंचायती राज संस्थाओं को भी जोड़ा जाए। समिति ने जिला स्तर पर सभी विकासात्मक एवं आयोजना गतिविधियों के लिए जिलाधिकारी को समन्वयक बनाने की अनुशंसा भी। इस प्रकार हनुमंत राव समिति बलवंत राय मेहता समिति, प्रशासनिक सुधार आयोग, अशोक मेहता समिति तथा अंत में जी.वी. में राव समिति से भिन्न अनुशंसाएं भी हैं, जिन्होंने एक जिलाधिकारी की विकासात्मक भूमिका को सीमित करने की अनुशंसा की तथा विकासात्मक प्रशासन में पंचायती राज को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की।
एल.एम. सिंघवी समिति

1986 में राजीव गांधी सरकार ने 'लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार' पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने के लिए एक समिति का गठन एल.एम. सिंहवी की अध्यक्षता में किया। इसने निम्न सिफारिशें दीं:

1. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने और उनके संरक्षण की आवश्यकता है। इस कार्य के लिये भारत के संविधान में एक नया अध्याय जोड़ा जाये। इससे उनकी पहचान और विश्वसनीयता अनुलंघनीय होने में महत्वपूर्ण मदद मिलेगी। इसने पंचायती राज निकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के संवैधानिक उपबंध की सलाह भी दी।

2. गांवों के समूह के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना की जाये। 3. ग्राम पंचायतों को ज्यादा व्यवहार बनाने के लिए गांवों का पुनर्गठन किया जाना। इसने ग्राम सभा की महत्ता पर भी जोर दिया तथा इसे प्रत्यक्ष लोकतंत्र की मूर्ति बताया।

4. गांव की पंचायतों को ज्यादा आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिये।

5. पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव, उनके विघटन एवं उनके कार्यों से संबंधित जो भी विवाद उत्पन्न होते हैं, उनके निस्तारण के लिये न्यायिक अधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिये।

धुंगन समिति

1988 में संसद की सलाहकार समिति की एक उप-समिति पी. के. धुंगन की अध्यक्षता में राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच करने के उद्देश्य से गठित की गयी। इस समिति में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए सुझाव दिया। इस समिति ने निम्न अनुशंसाएं की थीं:

1. पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्राप्त होनी

चाहिए।

2. गांव प्रखंड तथा जिला स्तरों पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज । 3. जिला परिषद को पंचायती राज व्यवस्था की धुरी होना चाहिए। इसे जिले में योजना निर्माण एवं विकास की ऐजेंसी के रूप में कार्य करना चाहिए।

4. पंचायती राज संस्थाओं का पांच वर्ष की निश्चित कार्यकाल

होनी चाहिए।

5. एक संस्था के सुपर सत्र की अधिकतम अवधि छह माह होनी चाहिए।

6. राज्य स्तर पर योजना मंत्री की अध्यक्षता में एक योजना निर्माण तथा समन्वय समिति गठित होनी चाहिए। 7. पंचायती राज पर केंद्रित विषयों की एक विस्तृत सूची तैयार

करनी चाहिए तथा उसे संविधान में समाहित करना चाहिए। 8. पंचायती राज के तीनों स्तरों पर जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण होना चाहिए। महिलाओं के लिए भी आरक्षण होनी चाहिए।

9. हर राज्य में एक राज्य वित्त आयोग का गठन होना चाहिए। यह आयोग पंचायती राज संस्थाओं को वित्त के वितरण के पात्रता- बिंदु तथा विधियां तय करेगा।

10. जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी पदाधिकारी जिले का कलक्टर होगा।

गाडगिल समिति

1988 में वी. एन गाडगिल की अध्यक्षता में एक नीति एवं कार्यक्रम समिति का गठन कांग्रेस पार्टी ने किया था। इस समिति से इस प्रश्न पर विचार करने के लिए कहा गया कि "पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावकारी कैसे बनाया जा सकता।" इस संदर्भ में समिति ने निम्न अनुशंसाएं (recommendations) की थीं:

1. पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।

गांव, प्रखंड तथा जिला स्तर पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज होना चाहिए।

(3) पचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पांच वर्ष सुनिश्चित कर दिया जाए।

4. पंचायत के सभी तीन स्तरों के सदस्यों का सीधा निर्वाचन

होना चाहिए। (5. अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए।

6. पंचायती राज संस्थाओं की यह जिम्मेदारी होगी कि वे पंचायत क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाएंगे तथा उन्हें कार्यान्वित करेंगे।

पंचायती राज संस्थाओं को कर (taxes) तथा (duties) लगाने, वसूलने तथा जमा करने का अधिकार होगा।

8. एक राज्य वित्त आयोग की स्थापना हो जो पंचायतों को वित्त

का आवंटन करें १. एक राज्य चुनाव आयोग की स्थापना हो जो पंचायतों के चुनाव संपन्न करवाए।

गाडगिल समिति की ये अनुशंसाएं एक संशोधन विधेयक के निर्माण का आधार बनीं। इस विधेयक का लक्ष्य था- पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा तथा सुरक्षा देना।

संवैधानीकरण

राजीव गांधी सरकार: एल.एम. सिंघवी समिति की उपरान्त अनुशंसाओं की प्रतिक्रिया। राजीव गांधी सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं के संवैधानीकरण और उन्हें ज्यादा शक्तिशाली और व्यापक बनाने हेतु जुलाई 1989 में 64वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया। यद्यपि अगस्त 1989 में लोकसभा ने यह विधेयक पारित किया, किंतु राज्यसभा द्वारा इसे पारित नहीं किया गया। इस विधेयक का विपक्ष द्वारा जोरदार विरोध किया गया क्योंकि इसके द्वारा संघीय व्यवस्था में केंद्र को मजबूत बनाने का प्रावधान था ।

(वी.पी. सिंह सरकार: नवंबर 1989 में वी.पी. सिंह के प्रधानमंत्रित्व में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने कार्यालय संभाला और शीघ्र ही घोषणा की कि वहे पंचायती राज संस्थाओं को मजबूती प्रदान करेगी। जून 1990 में पंचायती राज संस्थाओं के मजबूत करने संबंधी मामलों पर विचार करने के लिए वी.पी. सिंह की अध्यक्षता में राज्यों के मुख्यमंत्रियों का 2 दिन का सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में एक नए संविधान संशोधन विधेयक को पेश करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी गई। परिणामस्वरूप, सितंबर 1990 में लोकसभा में एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया गया। लेकिन सरकार के गिरने के साथ ही यह विधेयक भी समाप्त हो गया।

• नरसिम्हा राव सरकार: पी.वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व में कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर पंचायती राज के संवैधानिकरण के मामले पर विचार किया। इसने प्रारंभ के विवादस्पद प्रावधानों को हटाकर नया प्रस्ताव रखा और सितंबर 1991 को लोकसभा में एक संविधान संशोधन विधेयक प्रस्तुत किया। अंततः यह विधेयक 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के रूप में पारित हुआ और 24 अप्रैल, 1993 2 को प्रभाव में आया।

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