पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources) for upsc exams:-
पुरातात्विक साक्ष्यों में अभिलेख, सिक्के, स्मारक तथा भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला, एवं अन्य अवशेषों को रखा जा सकता है। पुरातात्विक स्रोत कहीं-कहीं पर स्वतंत्र रूप से तो कहीं-कहीं साहित्यिक स्रोत के पूरक के रूप में अध्ययन को सरल बनाते हैं। खास कर ऐसे काल में जिसका साहित्यिक साक्ष्य अस्पष्ट और भ्रामक होता है।

- पुरातात्विक स्त्रोतों (archaeological sources में अभिलेख सर्वाधिक महत्त्व का है। अभिलेखों के अध्ययन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी लिखावट में छेड़छाड़ की समस्या कम रहती है।
- प्राचीन भारत में अधिकांश अभिलेख चट्टानों ,ताम्रपत्रों, मुहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों,मंदिर की दीवारों और मूर्तियाँ या - ईंटों पर मिलते हैं। लगभग 1400 ईसा पूर्व के भारत के संदर्भ में सबसे प्राचीन अभिलेखों मेंबोगाजकोई अभिलेख में इन्द्र, वरुण, मित्र, नासत्य जैसे वैदिक देवता की चर्चा है।
- जिससे वैदिक काल की तिथि सुनिश्चित करने में सहायता मिली है। भारत में ज्ञात सबसे प्राचीन अभिलेख अशोक के अभिलेख हैं। इस अभिलेख से अशोक के शासनकाल उसके शासन की व्यवस्था तथा प्रशासन (Administration) के स्वरूप पर इतना प्रकाश पड़ता हैं ये अभिलेख ज्यादातर पत्थर के स्तंभों या शिलाओं पर उत्कीर्ण हैं तथा साम्राज्य के कोने कोने तक फैला हैं।
- अनेक प्रकार के स्मारकों, भवनों, मंदिरों, मूर्तियों तथा चित्रकला की शैली आदि से भी पर्याप्त अध्ययन सामग्री प्राप्त हो जाती है। इन स्मारक से उसकी शैली का ज्ञान और उनके निर्माता के विषय में भी सूचना मिल जाती है तथा यह सूचना भी प्राप्त होती है कि उनके निर्माण का उद्देश क्या था? यही बात मंदिर तथा मूर्तियों पर भी लागू होती है।
- हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ों की खुदाई से जिस नगर का अवशेष मिलता है उसी के आधार पर हड़प्पा सभ्यता का पुनर्निर्माण संभव हो पाया है। इन्हीं अवशेषों से ज्ञात हो पाया है कि समाज आर्थिक रूप से विभाजित था। इसी प्रकार विभिन्न बंदरगाहों की खुदाई से तथा वहां मिलने वाले पुरावशेषों से ज्ञात होता है कि किन-किन देशों से भारत के व्यापारिक संबंध थे।
- तक्षशिला और मथुरा से प्राप्त मूर्तियों के आधार पर गांधार और मथुरा मूर्तिकला की जानकारी प्राप्त होता है साँची, भरहुत के स्तूप, अजंता एलोरा, एलिफैंटा, बाघ की गुफाएँ तथा दक्षिण भारत के मंदिर प्राचीन शिल्पकला एवं चित्रकला के विकास पर प्रकाश डालते हैं। इसी प्रकार नालंदा एवं विक्रमशिला के खंडहरों से इन स्थानों की भव्यता प्रकट होती है।
- इन सबके अलावा कुछ अन्य पुरातात्विक अवशेष भी कभी-कभी अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। अन्य अवशेष जैसे विभिन्न प्रकार के मृदभांड, खिलौनों तथा मुहरों आदि से भी अध्ययन में सहायता मिलती है। मोहनजोदड़ों तथा अन्य हड़प्पाई स्थलों से प्राप्त मुहरों के आधार पर ही सिंधु सभ्यता के धार्मिक विश्वास की व्याख्या हो सकी है। इस प्रकार की मुहरों से तत्कालीन आर्थिक व्यवस्था तथा वाणिज्य व्यापार (commercial business) का भी ज्ञान होता है।
- हाल के कुछ दशकों मे साहित्यिक स्रोतों के समानान्तर पुरातात्विक स्रोतों का महत्व बढ़ता गया है। पुरातात्विक स्रोतों के पक्ष में निम्नलिखित बातें कही गई हैं। प्रथम, इसका स्वरूप वस्तुनिष्ठ होता है। इसमें मानवीय हस्तक्षेप की गुंजाइश बहुत कम होती है उदाहरण के लिए हम पुरातात्विक स्रोतों के रूप में टीले, अभिलेख, मृदभांड, स्मारक, सिक्के आदि पाते हैं। ये हजारों वर्षों से उसी प्रकार पड़े हैं।
- अतः उनके द्वारा प्रस्तुत चित्र अधिक विश्वसनीय प्रतीत होते हैं। दूसरे, मानवीय इतिहास का कुछ अंश ऐसा है जिसके अध्ययन के लिए साहित्यिक सामग्री उपलब्ध नहीं है, उदाहरण लिए पूर्व ऐतिहासिक काल ।
- इस काल के अध्ययन के लिए हमें पूरी तरह पुरातात्विक सामग्रियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है । उसी प्रकार आद्य ऐतिहासिक काल के अध्ययन में साहित्यिक स्रोत उपलब्ध हैं परन्तु या तो उस स्रोत का उपयोग नहीं हो सका है या फिर स्रोत की प्रामाणिकता कहीं संदिग्ध है। इस स्थिति में भी पुरातात्विक स्रोतों का महत्व बहुत बढ़ जाता है।
- इसके साथ पुरातात्विक अन्वेषण के क्रम में पर्यावरण की भूमिका पर भी विशेष बल दिया जाने लगा है उदाहरण के लिए, प्रथम नगरीकरण, अर्थात् हड़प्पा सभ्यता के पतन में पर्यावरणीय कारकों की भूमिका का विश्लेषण किया जा रहा है। न केवल प्रथम नगरीकरण वरन् गुप्त काल के अंत में होने वाले द्वितीय नगरीकरण के पतन में भी पर्यावरणीय कारक जैसे मुद्दे को हाल में किसी विद्वान के द्वारा उठाया गया है। उपग्रहों के उपयोग के पश्चात पुरातात्विक अन्वेषण में एक नया आयाम जुड़ गया है।
- फिर भी पुरातात्विक साक्ष्य को भी पूरी तरह दोष मुक्त नहीं माना जा सकता। अध्ययन स्रोत के रूप में इसकी भी अपनी सीमाऐं है।
- प्रथम - पुरातात्विक स्रोत का स्वरूप साहित्यिक स्रोत की तुलना में वस्तुनिष्ठ दिखता है परन्तु इसके आधार पर लिया गया निष्कर्ष तो व्यक्तिनिष्ठ ही होता है।
- दूसरे- अशोक के बहुत से अभिलेख उनके मूल स्थान से हटा दिए गए हैं। ऐसा भी नहीं माना जा सकता कि पुरातात्विक सामग्रियों में मानवीय हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होती। उसी तरह हड़प्पा के कुछ स्मारकों का स्वरूप इसलिए परिवर्तित हो गया है क्योंकि इन स्मारकों में से बहुत-सी ईंटें चोरों के द्वारा खोद कर ले जायी गईं। और अंत मे पुरातात्विक स्रोतों के अन्वेषण में सबसे बड़ी सीमा उभरती है क्षैतिज खुदाई का अभाव ।
- वस्तुतः क्षैतिज खुदाई बहुत महगी होती है। यही वजह है कि यहाँ अधिकतर लम्बवत खुदाई को ही प्राथमिकता दी गई है। इसलिए यहाँ किसी भी संस्कृति के जीवन का सम्पूर्ण चित्र प्राप्त नहीं हो पाता उदाहरण के लिए, हाल में कुछ विद्वानों ने सिन्धु घाटी में विकसित प्रथम नगरीकरण तथा गंगा घाटी में विकसित द्वितीय नगरीकरण के बीच निरन्तरता को रेखांकित करने का प्रयास किया है परन्तु गंगा घाटी में व्यापक क्षैतिज खुदाई के माध्यम से ही हम किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं।
- अतः निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों स्रोतों के अपने सबल एवं निर्बल पक्ष हैं। यही वजह है कि अधिक प्रामाणिक चित्र प्राप्त करने के लिए दोनों स्रोतों को एक दूसरे के साथ कनेक्ट करने की जरूरत है।
0 टिप्पणियाँ