बृहत क्षरण (mass wasting) क्या है?
बृहत क्षरण को अनुढाल संचलन अथवा बृहत संचालन भी कहते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मिट्टी किसी भी भूखंड की ऊपरी परत और शैल मलवा गुरुत्वाकर्षण द्वारा खींच कर डाल से नीचे की ओर लुढ़कते हैं।
इस क्रिया में गुरुत्वाकर्षण की मुख्य भूमिका होती है। बड़ी बड़ी चट्टान ढलान के साथ-साथ लुढ़क कर उच्च भाग से निम्न भाग की ओर बढ़ते हैं। महाद्वीपों की ऊंचाई कम होने के पीछे यह भी एक मुख्य कारक है।
बृहद क्षरण की गति में अधिक भिन्नता पाई जाती है इतनी मंद हो सकती हैं की आभास भी नहीं होता और यह कभी-कभी इतनी तीव्र हो सकती हैं जैसे कि हिमस्खलन।
बृहत क्षरण प्रक्रिया को निम्नलिखित दो वर्गों में बांटा गया है।
1.मंद संचलन (slow movement)
अ.मृदा विसर्पण(soil creep)
ब.शैल विसर्पण(Rock creep)
स.ढाल मलबा(Talus)
द.मृतिका सर्पण(solifluction)
2.द्रुत संचलन(fast movement)
अ.मृदा प्रवाह( Earthflow)
ब.भूस्खलन(landslide)
1.शैल स्खलन(Rock slide)
2.अवसर्पण(slymping)
3.शैल पात(Rock falls)
4.मलवा स्खलन(debris slide)
स.भूमि सर्पण(Earth slide)
द.पंक प्रवाह(mudflow)
1.मंद संचलन (slow movement)
अ.मृदा विसर्पण(soil creep)-
वर्षा के जल से मृदा ढीली हो जाती है। और गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मृदा और उस पर पत्थर का आवरण धीरे धीरे ढाल से नीचे की ओर फिसलने लगता है जिस कारण ढाल के आधार तल पर मृदा एकत्रित हो जाती है।
ऐसे मृदा संचय भू आकृतियों की जड़ों के चारों ओर देखे जाते हैं। शीत जलवायु वाले क्षेत्रों में जल के स्थान पर तुषार तथा हिम के पिघलने से मृदा विसर्पण पर होता है।
जब हिम के कण बढ़ाते हैं। तो उनके भार के कारण शैलो के टुकड़े ढाल से नीचे की ओर ढकेले ले जाते हैं।
मृदा विसर्पण के मुख्य कारण हो सकते हैं
शैलो का गण तथा ठंडा होना।
तुषार का बढ़ाना।
मृदा काजल से भीगना और सुखना।
जानवरों द्वारा रहने के लिए बिल का निर्माण।
भूकंप द्वारा शैल और मृदा की परत में हलचल पैदा करना।
ब.शैल विसर्पण(Rock creep)
चट्टानों की ऐसी परत जो मृतिका के नीचे स्थित होती है आधार शैल (Bed Rock) कहलाती है। इन आधार शैलों के विखंडन से प्राप्त विखंडन शैल पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से ढलान के साथ नीचे की ओर सकता है।
मिट्टी की परत ढाल के साथ सड़क कर न्यूनतम भाग में आज आने के बाद भी विसर्कापणकारी शक्तियां कार्यरत रहती हैं तो विसर्जित कर चुकी मृदा के नीचे की परत भी ढलान पर नीचे की ओर से रखने लगती है अर्थात आधार शैल भी निम्न ढाल की ओर विसर्जित होने लगता है इस प्रक्रिया को शैल विसर्पण कहते हैं।
स.ढाल मलबा(Talus)-
भू आकृतियों का निर्माण मुख्यता तुषार अपक्षय वाले क्षेत्रों में होता है। पहाड़ों के किनारों पर, छोटे रॉक ब्लॉक और कोणीय चट्टान - मलबे के ढेर एकत्र हो जाते हैं, ये कोणीय मलबे के ढेर ढलान के आकार के होते हैं, और यह ढलान आमतौर पर 35-37 ° तक एक समान कोण रहता है। इन्हें पैर का मलबा (Talus) या ढाल का मलबा (Scree) कहा जाता है। कहीं किसी चट्टान के खड़े स्तंभ के आधार स्तर पर इस तरह के पाद मलबे की ढालें बनती हैं, या किसी चट्टान की वाहिनी के पैर के स्तर में या चट्टान की चट्टान की दीवार के तल पर, ऐसे स्पष्ट स्केरी शंकु बनते हैं। कुछ वैज्ञानिक पाद के मलबे और ढलान के मलबे को पर्यायवाची मानते हैं, लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिक सोचते हैं कि ढलान का मलबा (स्क्री) पहाड़ की ढलान पर पड़ा हुआ ढीला पदार्थ है, जबकि पैर का मलबा (talus) निश्चित रूप से भृगु मलबा है।
शैल भृंगों के ऊपरी सिरों पर अपक्षय द्वारा खड्डों का निर्माण होता है और इन संकरे खड्ढों(Ravines) के तल में नीचे की ओर खिसकने वाला चट्टानी पदार्थ या चट्टान का मलबा इस भृंग के पाद तल पर शंकु के आकार में जमा होने लगता है। इसे तालस शंकु कहते हैं। इस शंकु पर बड़े आकार के चट्टान के टुकड़े आधार तल पर नीचे होते हैं, क्योंकि बड़े आकार की चट्टानें भारी होती हैं और उनमें लुढ़कने की शक्ति अधिक होती है। इसके विपरीत, कम रोलिंग बल वाले मलबे के हल्के कण ढलान शंकु के शीर्ष पर जमा हो जाते हैं।
द.मृतिका सर्पण(solifluction)-
Solifluction दो शब्दों (मिट्टी (soil)+ प्रवाह(flow)) से मिलकर बना है जिसका अर्थ है मिट्टी का प्रवाह। यह क्रिया ठंडी जलवायु वाले क्षेत्रों में होती है। जहां पर हिमपात र्पचूर मात्रा में होता है और जाड़ों में हिमपात भूमि को ढक लेता है। गर्मियों में बर्फ के पिघलने के बाद भी कुछ इलाकों में बर्फ जमी रहती है। ऐसे क्षेत्रों में मिट्टी सर्पण की क्रिया होती है। आर्कटिक सर्कल के टुंड्रा क्षेत्रों में गर्मियों की शुरुआत में ऊपर की बर्फ पिघलने लगती है, जबकि इसके नीचे की भूमि जमी हुई अवस्था में रहती है। इस अवस्था में मिट्टी पूरी तरह से संतृप्त हो जाती है और इसका पानी हिम के नीचे के स्तर तक नहीं पहुँच पाता है। यह संतृप्त (Satisfied)मिट्टी गुरुत्वाकर्षण(gravity)के प्रभाव में ढलान के साथ धीरे-धीरे चलती है। इसकी गति इतनी धीमी होती है कि सांफ दिखाई ही नहीं देता। इससे पहाड़ी ढलानों पर वेदिका और सीढ़ियों का निर्माण होता है।
2.द्रुत संचलन(fast movement)
अ.मृदा प्रवाह( Earth flow)-
यह इतनी बड़ी गति है जिसमें ढलान के ऊपरी भाग की चट्टानी सामग्री, बारिश के पानी के प्रभाव से गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा खींचती हुई ,उस ढलान के निचले हिस्से की ओर खिसकती रहती है। आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में जल-संतृप्त मृदा आवरण, पत्थर, मिट्टी और चट्टानी मिट्टी आदि की गति कुछ ही घंटों में बहुत अधिक मात्रा में हो जाती है, इसे मृदा प्रवाह कहते हैं। प्रवाह से जो स्थलरूप बनता है वह उभरे हुए अग्र-अंगूठे के आकार का होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के प्रवाह के कारण भारी मात्रा में पानी अवरुद्ध हो गया है और कई स्थानों पर झीलें बन गई हैं। ऐसी झीलें झेलम बेसिन और नेपाल के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में पाई जाती हैं मिट्टी के प्रवाह से रेलवे और सड़कें अवरुद्ध(Blocked) हो जातीं। स्वीडन,नॉर्वे और कनाडा के उत्तरी भाग में मिट्टी के प्रवाह का प्रभाव विशेष रूप से दिखाई देता है।
ब.भूस्खलन(landslide)-
भूस्खलन एक आधार शैल के उन बड़े संचलन को संदर्भित करता है,जो गुरुत्वाकर्षण बल के प्रभाव में ढलान के ऊपरी हिस्से से नीचे की ओर होते हैं। पहाड़ी इलाकों में अक्सर भूस्खलन होता रहता है। भारी मात्रा में मलबा नीचे आता है, जिससे जान-माल का भारी नुकसान होता है।
भूस्खलन निम्न प्रकार के होते हैं:
1.शैल स्खलन(Rock slide)-
इस प्रक्रिया में एक बड़ा शैल खंड (rock block)एक पहाड़ की धिमे ढलान के साथ,भृशं तल पर सामूहिक रुप से लुढ़कते और फिसलता है।
2.अवसर्पण(slumping)-
इस प्रकार के भूस्खलन में चट्टानों का कतरन होता है,अर्थात् एक चट्टान खंड अपने मूल स्थान से विघटित होकर ढलान के निचले भाग की ओर घूर्णी गति से गति करता है। इस प्रक्रिया में,आम तौर पर, चट्टान के टुकड़े घूर्णी गति के साथ एक घुमावदार अवतल ढलान के साथ चलते हैं। इसमें स्लाइडिंग फ्लोर बहुत ही ढलान के तल पर घुमावदार है। अवसरपण में एक बड़ा आधार शैल अपनी घुमावदार सर्पण सतह पर घूर्णी गति से चलता है
सर्पण सतह कठोर और कमजोर चट्टानों से बनी है,जिसमें सतह की ओर झुकी हुई परतें मूल रूप से स्पष्ट थीं। अवतलन की क्रिया वक्र तल पर घूर्णन गति द्वारा की जाती है। ऐसी घटना केरल तट पर कोच्चि के पास और पूर्वी तट पर चेन्नई और विशाखापत्तनम के बीच कई जगहों पर हुई है। उड़ीसा के पुरी तट पर भी ऐसी ही भू-आकृतियाँ हैं।
3.शैल पात(Rock falls)-
यह क्रिया स्खलन के समान है। इसमें एक ऊपरी भृगु बड़ा चट्टान खंड एक ही खंड के रूप में गिरता रहता है। एक अकेला सेल खंड गोलाश््म जितना छोटा हो सकता है और पूरे शहर के ब्लॉक जितना बड़ा हो सकता है। यह बात उस भृगु की भूगर्भीय संरचना और उस चट्टान के खंड को तोड़ने की विधि पर निर्भर करेगी कि उस गिरती चट्टान का आधार कितना बड़ा होगा। गिरने के बाद भी, उस बड़े खंड के बड़े खंड उस क्षेत्र में फैल सकते हैं और छोटे आकार के मलबे और रेत को फैला सकते हैं,और भृगु के ऊपरी चेहरे पर एक स्पष्ट निशान बना सकते हैं। हिमालय और आल्प्स पर्वतीय क्षेत्रों में चट्टान-गिरने के कई उदाहरण पाए जाते हैं।
4.मलवा स्खलन(debris slide)-
जो शैल खनिज पदार्थ मृत्तिका , बालू , गोलाश्म तथा अन्य शैलों के रूप में अपने मूल स्थान से पृथक हो गया है तथा ढाल के नीचे की ओर को खिसकता हुआ वहाँ से हटकर किसी अन्य स्थान पर पुनर्निक्षेपित हो गया है वह बिखरे पदार्थ का एकत्रित ढेर मलबा स्खलन कहलाता है । यदि वह मलबा समूह नीचे की ओर तीव्र गति से विसर्पण करता है , तो वह क्रिया मलबा स्खलन कहलाती है ; और यदि वह बिखरे मलबे का समूह अत्यन्त तीव्र गति के साथ ऊँचाई से नीचे की ओर गिरता तो उसे मलबा पात ( Debris Fall ) कहते हैं । इसके अनेक उदाहरण बृहत् हिमालय ( Great Himalayas ) की घाटियों में लगभग सभी ऋतुओं में मिलते हैं ।
स.भूमि सर्पण(Earth slide)-
यह ऐसा बृहत् संचलन है जिसमें भूमि का एक विशाल ब्लॉक सामूहिक रूप से पर्वत या पहाड़ी के नीचे को संचलित होता है , परन्तु यह टूटकर खण्डित नहीं होता । अर्थात् समस्त पदार्थ एक ही ब्लॉक बना रहता है । यह मार्ग में कितने ही लम्बे अथवा छोटे समय तक किसी भी स्थान पर रुका हुआ रहा सकता है ।
पंक प्रवाह(mudflow)-
उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में, वर्षा जल से संतृप्त चट्टान सामग्री अपने मूल स्थान की ढलान से अलग हो जाती है और प्लास्टिक सामग्री की तरह नीचे डूब जाती है, जहां उस सामग्री द्वारा छोड़ी गई जगह चांपाकर निम्न भृगु के रूप में अवशेष रह जाते हैं और जो संतृप्त पदार्थ नीचे की ओर उभरी हुई लोबियों के आकार में बहते रहते हैं, उस पदार्थ के प्रवाह को कीचड़-प्रवाह कहते हैं।
ज्वालामुखी विस्फोट के बाद भारी वर्षा के कारण ज्वालामुखी की राख और धूल गीली हो जाती है और मिट्टी का रूप ले लेती है। यह पंक ढलान के साथ-साथ नीचे की ओर खिसकता है। धरातल पर अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण का कार्य नदी, हिमनद पवन एवं महासागरीय तरंगों द्वारा किया जाता है। परिवर्तन के ये साधन विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
उदाहरण के लिए, एक नदी गीले क्षेत्रों में अधिक सक्रिय होती है जहाँ पर्याप्त पानी बहता है। नदी अपने मार्ग में विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों का निर्माण करती है।
जिसमें वी-आकार की घाटी,गार्ज, कैनियन, झरने, लकीरें, जलोढ़ शंकु और जलोढ़ पंख, नदी के मुहाने और दलदली झीलें, प्राकृतिक तटबंध, बाढ़ के मैदान, डेल्टा आदि प्रमुख हैं ग्लेशियर, यह ठंडे क्षेत्रों में अधिक सक्रिय है। इन क्षेत्रों में वर्ष के अधिकांश समय तापमान हिमांक बिंदु से नीचे रहता है और बर्फ जमी रहती है। ग्लेशियर अपने पाठ्यक्रम के साथ विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण करता है,जिनमें सर्क, हॉर्न, कर्नल, यू-आकार की घाटी, हैंगिंग वैली, भेड़ पीठ रॉक, ड्रम लिन, एस्कर, केम आदि प्रमुख हैं।
हवा मुख्य रूप से शुष्क क्षेत्रों में सक्रिय होती है जहां हवा द्वारा रेत के कणों को आसानी से ले जाया जाता है। हवा द्वारा बनाई गई स्थलाकृति में, छत्रक, न्यूज़ॉन, यार्डुंग, इनसेलबर्ग, पृथ्वी स्तंभ,रेत स्तूप, बरखान आदि है
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