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भारतीय संविधान के ऐतिहासिक पृष्ठभू ( Historical Background of India constitution )

भारतीय संविधान के ऐतिहासिक पृष्ठभू ( Historical Background of India constitution ) =

भारत में ब्रिटिश 1600 ई . में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में , व्यापार करने आए । महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे ।
कंपनी , जो अभी तक सिर्फ व्यापारिक कार्यों तक ही सीमित थी , ने 1765 में बंगाल , बिहार और उड़ीसा के दीवानी ( अर्थात राजस्व एवं दीवानी न्याय के अधिकार ) अधिकार प्राप्त कर लिए ।
1858 में , ' सिपाही विद्रोह ' के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ताज ( Crown ) ने भारत के शासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्षतः अपने हाथों में ले लिया । 
स्वतंत्रता मिलने के साथ ही 1946 में एक संविधान सभा का गठन किया गया और 26 जनवरी , 1950 को संविधान अस्तित्व में आया ।
यद्यपि संविधान और राजव्यवस्था की अनेक विशेषताएं ब्रिटिश शासन से ग्रहण की गयी थीं। 
उनके बारे में विस्तृत व्याख्या दो शीर्षकों के अंतर्गत कालक्रमबद्ध रूप से यहां दी गयी है :
कम्पनी का शासन ( 1773-1858 ) 
सम्राट का शासन ( 1858-1947 )

कम्पनी का शासन ( 1773-1858 ) =

1773 का रेगुलेटिंग एक्ट-

इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधानिक महत्व था , जैसे
( ) भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था ..
( ब ) इसके द्वारा पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनीतिक कार्यों को मान्यता मिली ,
( ) इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी । इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार थीं :
 1 . इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को ' बंगाल का गवर्नर जनरल ' पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद् का गठन किया गया । उल्लेखनीय है कि ऐसे पहले गवर्नर लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स थे । 
2. इसके द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर , बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गये 
3. अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई , जिसमें मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे ।
4. इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया ।
5. इस अधिनियम के द्वारा ब्रिटिश सरकार का कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया । इसने भारत में इसके राजस्व , नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया ।
1781 का संशोधन अधिनियम-
1773 के रेगुलेटिंग अधिनियम की कमियों को ठीक करने के लिए ब्रिटिश संसद ने 1781 का संशोधन अधिनियम पारित किया। जिसे सेटलमेंट अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है। इस कानून में निम्नलिखित विशेषताएं थीं:
1.इस कानून ने गवर्नर जनरल और परिषद को ऐसे कृत्यों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से मुक्ति कर दिया।
जिन्हें उन्होंने पद धारण करने के अधिकार से किया था।
इसी तरह कंपनी के कर्मचारियों को भी उनके कर्तव्यों के दौरान किए गए कार्यों के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से मुक्त कर दिया गया था। इस कानून में राजस्व से संबंधित मामलों और राजस्व संग्रह से संबंधित मामलों को भी सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया था।
3. इस कानून द्वारा कलकत्ता (कोलकाता) के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था। 
इसमें एक व्यवस्था यह भी रखी गई थी कि हिंदुओं के पर्सनल लॉ के मुताबिक मुसलमानों के केस मुसलमानों के पर्सनल लॉ के हिसाब से तय किए जाएं।
4. इस कानून द्वारा यह भी प्रावधान किया गया था कि प्रांतीय न्यायालयों की अपील गवर्नर-जनरल-इन-काउंसिल के पास दायर की जानी चाहिए न कि सर्वोच्च न्यायालय में।

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट रेगुलेटिंग एक्ट-

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीः 
1. इसने कंपनी के राजनीतिक और वाणिज्यिक कार्यों को पृथक - पृथक कर दिया ।
2. इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों के अधीक्षण की अनुमति तो दे दी लेकिन राजनीतिक मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड ( बोर्ड ऑफ कंट्रोल ) नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया । इस प्रकार , द्वैध शासन की व्यवस्था का आरंभ किया गया ।
3. नियंत्रण बोर्ड, ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक ,सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण करे । 
इस प्रकार ,यह अधनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था -
 पहला ,भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र कहा गया-
 दूसरा , ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया ।

1786 का अधिनियम ( Act of 1786 )-

1786 में लार्ड कार्नवालिस को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया । उसने यह पद स्वीकार करने के लिए दो शर्तें या मांगें रखीं :
1. उसे विशेष मामलों में अपनी काउंसिल के निर्णयों को अधिभावी करने अथवा न मानने का अधिकार हो ।
2. उसे सेनापति अथवा कमांडर - इन - चीफ का पद भी दिया जाए ।
उपरोक्त शर्तों को 1786 के कानून में प्रावधानों के रूप में जोड़ा गया ।

1793 का चार्टर कानून ( Charter Act of 1793 )-

इस कानून की निम्नलिखित विशेषताएं थीं:
1. इसने लार्ड कार्नवालिस को दी गई काउंसिल के निर्णयों के ऊपर अधिभावी शक्ति को भविष्य के सभी गवर्नर जनरलों एवं प्रेसीडेंसियों के गवर्नरों तक विस्तारित कर दिया ।
2. इसने गवर्नर जनरल को अधीनस्थ बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी की सरकारों के ऊपर अधिक नियंत्रणकारी शक्ति प्रदान की ।
3. इसने भारत पर व्यापार के एकाधिकार को अगले बीस वर्षों की अवधि के लिए बढ़ा दिया ।
4. इसने कमांडर - इन - चीफ के गवर्नर जनरल काउंसिल के सदस्य होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी ,बशर्ते कि उसे उसी रूप में नियुक्त किया गया हो ।
5.बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों तथा उनके कर्मचारियों को भारतीय राजस्व में से ही भुगतान किया जाएगा ।

चार्टर कानून 1813 ( Charter Act of 1813 )-

 1. इस कानून ने भारत में कम्पनी के व्यापार एकाधिकार को समाप्त कर दिया। तब भी इस कानून ने चाय के व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार में कम्पनी के एकाधिकार को बहाल रखा ।
2. इस कानून ने ईसाई मिशनरियों को भारत आकर लोगों को ' प्रबुद्ध ' करने की अनुमति प्रदान की ।
3. इस कानून ने भारत के ब्रिटिश इलाकों में बाशिंदों के बीच पश्चिमी शिक्षा के प्रचार - प्रसार की व्यवस्था दी ।
4. इस कानून ने भारत की स्थानीय सरकारों को व्यक्तियों पर कर लगाने के लिए अधिकृत किया । कर भुगतान नहीं करने पर दंड की भी व्यवस्था की ।

1833 का चार्टर अधिनियम -

इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं : 
1. इसने बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया , जिसमें सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थीं । लॉर्ड विलियम बैंटिंक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे ।
2. इसने भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये । इसके अंतर्गत पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया और नए कानून के तहत बने कानूनों को एक्ट या अधिनियम कहा गया । 
3. ईस्ट इंडिया कंपनी की एक शुद्ध रूप से प्रशासनिक निकाय बन गया । इसके तहत कंपनी के अधिकार वाले क्षेत्र ब्रिटिश राजशाही और उसके उत्तराधिकारियों के विश्वास के तहत ही कब्जे में रह गए ।
4. चार्टर एक्ट 1833 ने सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता का आयोजन शुरू करने का प्रयास किया । इसमें कहा गया कि कंपनी में भारतीयों को किसी पद ,कार्यालय और रोजगार को हासिल करने से वंचित नहीं किया जायेगा । हालांकि बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया ।

1853 का चार्टर अधिनियम 

1793 से 1853 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमों की श्रृंखला में यह अंतिम अधिनियम था ।  इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं : 
1. इसने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया । इसके तहत परिषद में छह नए पार्षद और जोड़े गए , इन्हें विधान पार्षद कहा गया । इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं ,जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं । इस प्रकार , विधायिका को पहली बार सरकार के विशेष कार्य के रूप में जाना गया , जिसके लिए विशेष मशीनरी और प्रक्रिया की जरूरत थी ।
2.इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का आरंभ किया ,इस प्रकार विशिष्ट सिविल सेवा भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में ( भारतीय सिविल सेवा के संबंध में ) मैकाले समिति की नियुक्त की गई ।
3. इसने कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे रखने का अधिकार दिया । लेकिन पूर्व अधिनियमों के विपरीत इसमें किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था । इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता था ।
4. इसने प्रथम बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया । गवर्नर जनरल की परिषद में तह नए सदस्यों में से चार का चुनाव बंगाल , मद्रास , बबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था ।

सम्राट का शासन ( 1858-1947 )

1858 का भारत सरकार अधिनियम यह महत्वपूर्ण कानून 1857 के विद्रोह के बाद बनाया गया था। भारत के शासन में सुधार के लिए अधिनियम के रूप में जाने जाने वाले इस कानून ने ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया।
इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:
1. इसके तहत भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया। गवर्नर जनरल का पद बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। वह (वायसराय) भारत में ब्रिटिश क्राउन के प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गए। लॉर्ड कैनिंग भारत के पहले वायसराय बने। 
2. इस अधिनियम ने बोर्ड ऑफ कंट्रोल और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को खत्म करके भारत में शासन की द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया। एक नया पद सृजित किया गया था। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और अंततः ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
4. भारत के सचिव की सहायता के लिए एक 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया,जो एक सलाहकार परिषद थी। परिषद के अध्यक्ष को भारत का सचिव बनाया गया।
5. इस कानून के तहत काउंसिल ऑफ इंडिया सेक्रेटरी का गठन किया गया था, जो एक कॉरपोरेट बॉडी थी और जिसे भारत और इंग्लैंड में मुकदमा चलाने की शक्ति थी। इस पर मुकदमा भी चलाया जा सकता है। 1858 के अधिनियम का मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक तंत्र का सुधार था।

1861 का भारत परिषद अधिनियम

1857 की महान क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में शासन चलाने के लिए भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक है। 1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारतीय संवैधानिक और राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण कार्य था। 
 इस अधिनियम की विशेषताएं इस प्रकार थीं:
1. इसने कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों की भागीदारी की शुरुआत की। इस प्रकार वायसराय कुछ भारतीयों को विस्तारित परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में नामित कर सकता था। 1862 में लॉर्ड कैनिंग तीन भारतीयों को बनारस के राजा ,पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।
2. इस अधिनियम ने मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी को विधायी शक्तियाँ देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की। इस प्रकार अधिनियम ने विनियमन अधिनियम, 1773 द्वारा शुरू किए गए केंद्रीकरण की प्रवृत्ति को उलट दिया,जो 1833 के चार्टर अधिनियम के साथ अपने चरम पर पहुंच गया। विधायी विकास की इस नीति के कारण प्रांतों को 1937 तक पूर्ण आंतरिक स्वायत्तता मिली।
 3. विधान परिषदों का गठन किया गया बंगाल, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पंजाब में 
4. इसने वायसराय को परिषद में व्यवसाय के संचालन के लिए और अधिक नियम और आदेश बनाने की शक्ति दी। इसने 1859 में लॉर्ड कैनिंग द्वारा शुरू की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी। इसके तहत वायसराय की परिषद के एक सदस्य को एक या एक से अधिक सरकारी विभागों का प्रभारी बनाया जा सकता था और उसे इस विभाग में परिषद की ओर से अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार था। .
5. इसने वायसराय को परिषद की सिफारिश के बिना आपात स्थिति में अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया।

1892 का भारत सरकार अधिनियम

1.अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली की मान्यता प्राप्त हुए।
 2.विधायिकाओं की शक्तियों में वृद्धि हुईं।
3. वार्षिक बजट पर बहस का अधिकार मिला।
4. बजट पर बहस करने और कार्यपालिका की समझ पर सवाल उठाने का अधिकार दिया गया लेकिन वोट का अधिकार नहीं मिला।

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