मंदिरों की वास्तुकला क्या है ?
शुरुआती समय में मंदिर सपाट छत वाले, एक ही पत्थर को काटकर बनाए जाते थे।लेकिन कुछ समय पश्चात सिखरो से युक्त मंदिरों का एक के बाद एक विकास हुआ। इस क्रमिक विकास को पांच भागों में बांटा जा सकता है आईये जानते है हिंदी में
प्रथम चरण :-
- इस चरण की मंदिरों की विशेषताएं निम्न होती है।
- मंदिर के छत सपाट होते थे।
- मंदिरों का आकार वर्गाकार होता था।
- द्वार मंडप को उथले स्तंभों पर निर्मित किया जाता था।
- पूरी संरचना को कम ऊंचाई के मंचों पर बनाया जाता था।
उदाहरण :- सांची में निर्मित मंदिर संख्या 17।
द्वितीय चरण :-
प्रथम चरण की भांति इसमें भी सारी विशेषताएं एक समान थी किंतु इस चरण में मंचों की ऊंचाई अधिक हो गई कहीं-कहीं पर दो मंजिला मंदिर भी प्राप्त हुए हैं। इस चरण का एक और मुख्य भाग इसमें संयोजन गर्भ ग्रह के चारों ओर ढका हुआ मार्ग था जिसका उपयोग गर्भ ग्रह के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए होता था जिसे प्रदक्षिणा- पथ कहा जाता था ।
उदाहरण :-मध्यप्रदेश में नचना कुठार का पार्वती मंदिर।
तृतीय चरण: -
इस चरण में सपाट छतो के स्थान पर शिखरों का उद्भव हुआ लेकिन अभी भी यह कम ऊंचाई वाले थे और मंदिर को बनाने के लिए पंचायतन शैली का आरंभ हुआ
पंचायतन शैली में प्रमुख देवता के मंदिर के साथ साथ 4 गौण देव मंदिर होते थे। प्रमुख मंदिर वर्गाकार होता था लेकिन इसके सामने लंबा मंडप होने के कारण यह आयताकार हो जाता था। गौण देव मंदिरों को मंडप के चारों तरफ एक दूसरे के सम्मुख स्थापित किया जाता था। इस मंदिर का भू विन्यास क्रूस के आकार का हो जाता था।
उदाहरण : देवगढ़ का दशावतार मंदिर, ऐहोल का दुर्गा मन्दिर etc।
चतुर्थ चरण :-
इस चरण के मंदिरों में एकमात्र अंतर हुआ कि मुख्य मंदिर अधिक आयताकार हो गया
उदाहरण : महाराष्ट्र में तेर मंदिर।
पंचम चरण :-
इस चरण में बाहर की ओर उठे हुए आयताकार किनारों वाले वृत्ताकार मंदिर का निर्माण शुरू हुआ था। इससे पहले कि सारी विशेषताएं मंदिरों में बनी रही।
उदाहरण : राजगीर का मनियार मठ।
मंदिर वास्तुकला की प्रमुख शैलियां कौन-कौन सी हैं?
- गर्भ ग्रह: इसमें मंदिर के प्रमुख देवता को स्थापित किया जाता है जो आम तौर पर एक छोटा कक्ष होता है।
- मंडप:यह मंदिर का प्रवेश स्थल होता है। इस स्थान पर आमतौर पर बड़ी संख्या में पूजा करने वाले लोग एकत्रित होते हैं।
- शिखर: यह पर्वत जैसा होता है इसका आकार पिरामिड से लेकर वक्र रेखिए प्रकार का हो सकता है।
- वाहन : यह स्थान प्रमुख देवता का आसान होता है और इसे पवित्रम स्थल के ठीक सामने स्थापित किया जाता है।
वास्तुकला की नागर शैली :-
5वीं शताब्दी ईस्वी से भारत के उत्तरी भाग में मंदिर वास्तुकला की 1 भिन्न शैली विकसित हुई जिसे नागर शैली के रूप में जाना जाता है।
- नागर शैली की महत्वपूर्ण विशेषताएं है।
- मंदिरों के निर्माण में पंचायतन शैली का उपयोग किया गया था।
- मुख्य देव मंदिर के सामने मंडप स्थित होता था।
- मुख्य देव के गर्भ ग्रह के बाहर देवी गंगा और यमुना की प्रतिमाओं को स्थापित किया जाता था।
- ज्यादातर मंदिर परिसर में जल की कोई टैंक नहीं होता था।
- सामान्य रूप से मंदिरों को भूमि से ऊंचे मंच पर बनाया गया था।
- मंडलों के निर्माण में स्तंभों का प्रयोग हुआ था
- इस मंदिर निर्माण में शिखर मुख्यता तीन प्रकार के होते थे
- रेखा प्रसाद
- फमसाना
- वल्लभी
- शिखर का ऊर्ध्वाधर शीर्ष एक क्षैतिज नाली युक्त चक्र के रूप में समाप्त होता था। जिसे आमलक कहा जाता है।
- इसके ऊपर एक गोलाकार आकृति को स्थापित किया जाता है जिसे कलश कहा जाता है।
- मंदिर के आंतरिक दीवारों को तीन भागों में बांटा गया था जिसे रथ कहते हैं ऐसे मंदिर त्रिरथ मंदिर के नाम से जाने जाते हैं बाद में पंचरथ सप्तरथ यहां तक कि नवरथ मंदिर भी बनाए जाने लगे।
- गर्भ ग्रह के चारों ओर चक्कर लगाने के लिए रास्ते हुआ करते हैं।
- समानता मंदिर परिसर चारदीवारी से घिरा नहीं होता था। और प्रवेश द्वार भी नहीं होता था।
नागर शैली के अंतर्गत तीन उप शैली भी सामने आए जो इस प्रकार है
- ओडिशा शैली
- खजुराहो शैली
- सोलंकी शैली
दक्षिण भारत में मंदिर वास्तुकला: -
जिस तरह से उत्तर भारत में उप शैलियों के साथ नागर शैली विकसित हुई उसी प्रकार से दक्षिण भारत में भी एक विशेष शैली विकसित हुई।
इन शैली को कालक्रम के अनुसार चार भागों में बांटा जा सकता है।
- महेंद्र समूह
- नरसिंह समूह
- राज सिंह सैनी
- नंदी वर्मन शैली
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