हड़प्पा सभ्यता की कला और वास्तुकला क्या है ?
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के अवशेष उस सभ्यता के नगर नियोजन प्रणाली के बारे में एक बेहतर समझ प्रकट करती है। इसे सभ्यता के नगर नियोजन प्रणाली आयताकार ग्रिड पर आधारित हुआ करती थी। इस सभ्यता में सड़क के एक दूसरे को समकोण पर काटती थी। और यह सड़कें उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम दिशा में जाया करती थी।
ज्यादातर उत्खनन स्थलों से निम्न तीन प्रकार के वन पाए गए है।
- आवास गृह
- सार्वजनिक भवन
- सार्वजनिक स्नानागार
इस सभ्यता के लोग अपने मकान बनाने के लिए स्टैंडर्ड आयाम वाली मिट्टी की पक्की ईंटों का उपयोग करते थे। और इन्हीं ईट को आपस में जोड़ने के लिए जिप्सम के गारे का उपयोग किया जाता था।
इस सभ्यता के नगर प्राय:दो भागों में बैठे हुए थे-ऊंचे गढ(दुर्ग) तथा निचला नगर।
ऊंचे गढ़ का उपयोग विशाल आकार वाले भावनाओं जैसे अन्नागार, प्रशासनिक भवन स्तंभों वाला हाल और आगन आदि के लिए होता था। किंतु सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों में मिस्र और मेसोपोटामिया सभ्यता की तरह शासकों के लिए मंदिर या महल जैसे बड़े स्मारक नहीं है। इस सभ्यता के अन्नागार पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ वायु संचार वाहिकाओं सहित ऊंचे चबूतरो के साथ निर्माण किए गए थे।
पड़प्पाई नगरों की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि यहां सार्वजनिक स्नानागार का प्रचलन था। सार्वजनिक स्नानागारो का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण मोहनजोदड़ो का वृहत स्नानागार है।
नगर के निचले भाग में एक कक्षा वाले छोटे भवन पाए गए हैं इन भवनों का उपयोग अनुमानं श्रमिक संप्रदाय के लोग करते थे। कुछ घरों में सीढ़ियों के प्रमाण मिले हैं जिससे यह अनुमान लगाया जाता है की यहां पर दो मंजिला भवन उपस्थित थे। ज्यादातर भवनों में निजी कुएं और स्नान ग्रह था और यहां पर हवा आने जाने के लिए उचित व्यवस्था थी।
हड़प्पा सभ्यता की जल निकासी व्यवस्था इतनी उन्नति की प्रत्येक घर से निकलने वाली छोटी नाली सड़क के साथ लगी बड़ी नाली में जाकर जुड़ जाती थी।इनकी साफ-सफाई और रखरखाव के लिए नालियों को व्यवस्थित रूप से ढका गया था। और उचित दूरी पर मल त्याग की व्यवस्था थी यानी कि मलकुंड बने हुए थे। इस सभ्यता में व्यक्तिगत और सार्वजनिक दोनों प्रकार की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया गया था कई स्थानों पर कुआ भी उपस्थिति देखी गई है।
हड़प्पा सभ्यता की कला:-
मोहर
हड़प्पा सभ्यता की सभी उत्खनन स्थलों से अलग-अलग आकार व प्रकार की मोहरी मिली है यहां की अधिकांश मोहरे वर्गाकार है तो वही त्रिकोणीय, आयताकार और वृत्ताकार मोहरों का भी उपयोग हुआ करता था। मोहरों को बनाने के लिए मुलायम पत्थर (स्टेटाइट) का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाता था। लेकिन अगेट, चार्ट ,तांबा, काचाभ,टेराकोटा भी मोहरो को बनाने में उपयोग की जाती थी।
ज्यादातर मोहरों पर चित्रा अक्षर लिपि (pictographic script) में मुद्रा लेख भी है जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। द्वि-दिशात्मक लेखन शैली का उपयोग भी इसमें प्रचलित था। कईयों पर पशुओं की आकृतियां भी मौजूद हैं। जैसे कुबड़दार बैल,गैंडा,बाघ,हाथी,भैंस,बायसन,बकरी मारकूर,साकिन,मगरमच्छ आदि। परंतु किसी मोहर पर गाय का कोई साक्ष्य नहीं मिला है। मोहरों पर एक और पशु या मानव आकृति और दूसरी तरफ मुद्रा लेख या दोनों और मुद्रा लेख हो सकते हैं पर किसी किसी पर तीसरी और भी मुद्रा लेख है
अधिकांश मोहरों का उपयोग मुख्य रूप से व्यवसायिक कार्यो के लिए होता था। मेसोपोटामिया में विभिन्न मोहरों की खोज हुई और लोथल जैसे स्थलों से या तथ्य प्राप्त हुआ मेसोपोटामिया के लोग सिंधु घाटी सभ्यता को मेलूहा कहते थे। कई जगह से यह तथ्य मिला कि एक छेद वाली मोहर शवो पर पाई गई। अर्थात लोग इसका प्रयोग ताबीज के रूप में भी करते थे। कुछ मोहरों पर गणितीय आकृति भी मिली है इसका तात्पर्य की इनका उपयोग शैक्षणिक उद्देश्य के लिए भी किया जाता और स्वास्तिक दिखने वाली डिजाइन वाली मोहरी भी पाई गई हैं
मुख्य मोहरों में-पशुपति की मोहर, यूनिकॉर्न मोहर आदि शामिल है।
कांस्य मूर्तियां -
हड़प्पा सभ्यता में ज्यादातर कांसे की ढलाई की प्रथा थी। काशी की मूर्ति को लुप्त मोम तकनीकी का उपयोग कर बनाया ज्यादा था। आज भी, इसी तकनीक का देश के कई भागों में प्रचलित है।
उदाहरण के तौर पर मोहनजोदड़ो की कांच की नर्तकी, कालीबंगा का कांस्य का बैल आदि।
टेराकोटा -
टेराकोटा मूर्तियां बनाने के लिए पकी हुई मिट्टी को उपयोग में लिया जाता था। काशी के मूर्तियों की तुलना में टेराकोटा की मूर्तियां कम संख्या में प्राप्त हुई हैं और यह व्यवस्थित आकार एवं रूप का परिचय नहीं देती है। इनको पीचिंग विधि द्वारा बनाया जाता था। यह गुजरात और कालीबंगा के स्थलों से प्राप्त हुए हैं।
उदाहरण-मातृ देवी की मूर्ति, सींग वाले देवता का मुखौटा,खिलौना आदि।
मृदुभांड -
सिंधु घाटी सभ्यता के मृदुभांडो को दो प्रकार से बांटा जा सकता है -
शादे मृदभांड और चित्रित मृदभांड।
चित्रित मृदभड को लाल वा काले मृदभांडओं के रूप में रगा जाता हैं। चाक पर बनाए गए मृदभांड अति उत्तम दिखाई पड़ते हैं। इन मृदभांड ओं का उपयोग मुख्यता तीनों देशों के लिए किया जाता था।
- अनाज और पानी के भंडारण आदि कार्यों के लिए।
- छोटे पात्रों का उपयोग सजावटी प्रयोजन के लिए होता था।
- तली में बने बड़े छेद बगल में छोटे-छोटे क्षेत्रों वाले भी मृदभांड प्राप्त हुए हैं इनका उपयोग शराब बनाने में प्रयोग किया जाता था।
आभूषण -
सिंधु घाटी सभ्यता के लोग आभूषण बनाने के लिए मूल्यवान धातुओं और कीमती रत्नों से लेकर साधारण हड्डियों और कहीं-कहीं पर पकी हुई मिट्टी जैसे सामग्री का उपयोग करते थे। इस सभ्यता की पुरुष और महिलाएं कुछ आभूषण समानता दोनों पहनते थे जैसे कि पट्टीका बाजूबंद और अंगूठी आदि। किंतु कुछ आभूषण जैसे करधनी झुमके और पायल केवल महिलाएं ही उपयोग में लेती थी।
इस समय काल में मनके भी काफी लोकप्रिय थे जो कोर्नलियन,नीलम, क्वार्टाज, स्टेटाइट आदि सामग्री का उपयोग करते थे। इस बात के साक्षय चन्हूदरो और लोथल में मिले कारखानों से स्पष्ट है। हड़प्पा के लोग कपास और ऊन का उपयोग कपड़े के लिए करते थे। इस सभ्यता के लोग बाल और दाढ़ी के विभिन्न शहरों से परिचित है जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह लोग फैशन के प्रति जागरूक थे।
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