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भूपर्पटी का उद्गम एवं विकास (Origin and evolution of the earth's crust)

भूपर्पटी का उद्गम एवं विकास (Origin and evolution of the earth's crust)

भूपर्पटी(Earth's crust):-

पृथ्वी की भूपर्पटी को भू पृष्ठ भी कहा जाता है। यह पृथ्वी की ऊपरी परत है जो विभिन्न प्रकार की चट्टानों से बनी है।
क्रस्ट की मोटाई के संबंध में अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं, लेकिन अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि क्रस्ट की औसत मोटाई 33 किमी है। है । पृथ्वी की पपड़ी के नीचे मेंटल है। मोहोरोविकिक डिसकंटीनिटी क्रस्ट को मेंटल से अलग करती है। क्रस्ट महाद्वीपों और महासागरों सहित पूरी पृथ्वी पर फैली हुई है। लेकिन इसकी औसत मोटाई 33 किमी ही है। जिसके कारण क्रस्ट पूरी पृथ्वी का केवल 0.7% है। इसकी तुलना में पृथ्वी का मेंटल 67.8 प्रतिशत और कोर 31.5% है।
स्थलाकृतिक दृष्टि से महाद्वीपों पर पर्वत, पठार, मैदान, घाटियाँ तथा अन्य अनेक स्थलरूप पाये जाते हैं। इसी प्रकार समुद्र की सतह पर महाद्वीपीय मैंग्रोव, महाद्वीपीय जलमग्न ढलान, गंभीर समुद्री मैदान, महासागरीय कुंड, जलमग्न कटक, निताल पहाड़ियाँ, घाटी आदि बहुतायत में पाए जाते हैं।
महाद्वीप और महासागर बड़े आकार के हैं, जिन पर विविधताओं का मिलना स्वाभाविक है। लेकिन कुछ वर्ग किलोमीटर के एक छोटे से क्षेत्र में भी अत्यधिक भूतत्वी और भूगर्भिक विषमताएँ पाई जाती हैं। ये विषमताऐ आग्नेय, अवसादी और कायांतरित तीनों प्रकार की चट्टानों की भौतिक और रासायनिक विशेषताओं में पाए जाते हैं।
वर्ष 1924 में क्लार्क और वाशिंगटन ने अपनी गणना के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि पृथ्वी की 13 किमी. क्रस्ट की गहराई 95 प्रतिशत आग्नेय चट्टानों, 4 प्रतिशत शेल्स, 0.75 प्रतिशत बलुआ पत्थर और 0.25 प्रतिशत चूना पत्थर से बनी है। इससे स्पष्ट है कि अधिकांश भूपर्पटी आग्नेय चट्टानों से बनी है जो लावा के ठंडा होने से बनती हैं।
क्लार्क तथा वाशिंगटन के अनुसार भूपर्पटी का 99 % भाग आठ तत्वों से बना हुआ है ।
भूपर्पटी के तत्वों का विवरण प्रतिशत मात्रा तत्व 
  1. ऑक्सीजन ( O ) -46.710 
  2. सिलिकन ( Si )-27.690 
  3. एल्यूमीनियम ( AI ) -8.070 
  4. लोहा ( Fe ) -5.050 
  5. कैल्शियम ( Ca ) -3.650 
  6. सोडियम ( Na ) -2.750 
  7. पोटेशियम ( K ) -2.580 
  8. मेग्नेशियम ( Mg ) - 2.080
भूपर्पटी में पदार्थों का घनत्व सामान्यतः 2.5 से 3.3 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर होता है। यह घनत्व पानी (1 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर) से अधिक है, लेकिन पृथ्वी की पपड़ी के नीचे स्थित पदार्थों के घनत्व से कम है। क्रस्ट की मोटाई महाद्वीपों के नीचे अधिक है लेकिन महासागरों के नीचे कम है। इस मोटाई को मोहरोविसिस डिसकंटीनिटी ((Mohorovicis discontinuinui)) के रूप में जाना जाता है। नीचे इसकी गहराई केवल 6 किमी है।
डेली ( R.A. Daly 1940 ) ने 80 किमी की गहराई तक पृथ्वी के बाहरी खोल को स्थलमंडल ( Lithosphere ) का नाम दिया है । ग्रीक भाषा में Lithos का अर्थ Rock ( चट्टान ) होता है । अतः भूपर्पटी का अधिकांश भाग चट्टानों से निर्मित है । स्थलमंडल अपने नीचे स्थित दुर्बलतामंडल ( Asthero - sphere ) के ऊपर तैर रहा है । इसकी तुलना जल में तैर रहे प्लावी हिम ( Ice berg ) से की जा सकती है

भूपर्पटी के भाग ( Parts of the Crust ):-

भौतिक रासायनिक एवं भूगर्भिक दृष्टि से भूपर्पटी को दो मुख्य भागों में बांटा जाता है । इन्हें क्रमशः महाद्वीपीय एवं महासागरीय भूपर्पटी कहते हैं । इन दोनों के बीच संक्रमण भूपर्पटी भी होती है । 

महाद्वीपीय क्रस्ट (Continental crust):-

महाद्वीपीय क्रस्ट कुल क्रस्ट के लगभग एक-तिहाई हिस्से को कवर करता है और इसमें महाद्वीपों के साथ-साथ महाद्वीपीय शेल्फ भी शामिल है। अधिकांश महाद्वीपीय क्षेत्र उत्तरी गोलार्ध है जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया मुख्य महाद्वीप हैं। दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया दक्षिणी गोलार्ध में स्थित हैं। अफ्रीका महाद्वीप उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्द्धों में फैला हुआ है। महाद्वीपीय क्रस्ट की औसत मोटाई 30-50 किमी है।
इसकी अधिकतम मोटाई हिमालय जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाती है जहां यह 70 किमी. मोटा है इस क्रस्ट का औसत घनत्व 2.5 से 2.7 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है। घनत्व में परिवर्तन चट्टानों की प्रकृति पर निर्भर करता है। 
इस क्रस्ट में निम्नलिखित तीन परतें होती हैं :
(i) ऊपरी अवसादी परत:- 
क्रस्ट की ऊपरी परत अवसादी चट्टानों से बनी होती है। जिसकी अधिकतम मोटाई 10 से 15 किमी. है । इस परत में अवसादी चट्टानों का घनत्व 2.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर से कम होता है। जिन क्षेत्रों में लावा या कायांतरित चट्टानें सतह पर आती हैं, वहां अवसादी चट्टानों का लगभग पूर्ण अभाव है। प्राचीन भूतल ढाल, जैसे बाल्टिक शील्ड,ऐसे ही क्षेत्र हैं जहां अवसादी चट्टानें नहीं पाई जाती हैं।

ii ) ग्रेनाइट परत ( Granitic Layer ):-

अवसादी परत के नीचे ग्रेनाइट परत है जो 10 से 20 किमी .मोटी है । महाद्वीपीय भूपर्पटी का अधिकांश भाग ग्रेनाइट जैसी कायांतरित चट्टानों से ही निर्मित है । आग्नेय चट्टानें भी बड़ी मात्रा में पाई जाती हैं । यहां पर चट्टानों का घनत्व 2.5 से 2.7 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर होता है। 

( iii ) बैसाल्ट परत ( Basalt Layer ) : 

भूपर्पटी के आधार पर बैसाल्ट ( Basalt ) की परत है जिसकी मोटाई सामान्यतः 40 कि.मी. है। यहां पर घनत्व 2.8 से 3.3 है।
महाद्वीपीय भू - पृष्ठ की विभिन्न परतों को अलग करने वाली सीमाओं को भूकम्पीय तरंगों के परावर्तन ( Reflection ) तथा आवर्तन ( Refraction ) की सहायता से जाना जाता है । ग्रेनाइट तथा बैसाल्ट की परतों को कोनार्ड असातत्य ( Conard Discontinuity ) अलग करती महाद्वीपीय भू - पृष्ठ की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि पर्वतों के नीचे इसकी मोटाई अत्यधिक है । इसे पर्वतीय आधार ( Mountain Root ) कहते हैं । उदाहरणतया हिमालय के नीचे भू - पृष्ठ की मोटाई 70 से 80 कि.मी. है । 
भूगर्भिक लक्षणों के आधार पर महाद्वीपीय भूपर्पटी को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जाता है : 

1. क्रेटॉन ( Cratons or Kratons ) :

अंग्रेजी का ( Cratons ) अथवा ( Krotons ) ग्रीक भाषा के ( Kratos ) से लिया गया है जिसका अर्थ शक्ति अथवा ताकत होता है । ये महाद्वीपों पर सपाट एवं स्थिर भाग होते हैं . जिनमें जटिल रवेदार चट्टानें भूतल पर दिखाई देती । या ये चट्टानें अवसादी चट्टानों की पतली परत द्वारा ढकी हुई होती हैं । इन पर हल्के आवलन ( wasping ) के अतिरिक्त पृथ्वी की हलचलों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता । जिन क्षेत्रों में अति विकृत ( deformed ) आग्नेय एवं कायांतरित चट्टानें भूतल पर दिखाई देती हैं वहां पर क्रेटॉन में शील्डे सम्मिलित हो जाती हैं । स्थिर प्लेटफार्म अवसादी चट्टानों की क्षैतिज परतों से ढके हुए होते हैं।

2. शील्ड ( Sheilds ) :- 

ये कम ऊंचाई की क्षेत्रीय भूआकृतियां हैं जो समुद्र तल से कुछ सौ मीटर ही ऊंची होती हैं । ये सामान्यतः उन्नतोदर ( convex ) आकृति की होती हैं और स्थिर रहती हैं । इनका निर्माण पूर्व केम्ब्रियन युग की आग्नेय एवं कायांतरित चट्टानों से हुआ है । ये सामान्यत : सपाट समतल भाग होते हैं परंतु कहीं - कहीं कोमल चट्टानों के अपरदन के बाद कठोर चट्टानें कुछ ऊंचाई पर खड़ी रहती हैं । यूं तो प्रीकेम्ब्रियन युग की आग्नेय एवं कायांतरित चट्टानें बहुत कठोर होती हैं परंतु कहीं - कहीं पर भ्रंश एवं सन्धियां पाई जाती हैं जिससे भूतल पर भूआकृतिक विविधताएं मिलती हैं । शील्डों की जटिल आग्नेय एवं कायांतरित चट्टानें प्रत्येक महाद्वीप का केंद्र ( nucleus ) बनाती हैं । विश्व में कई शील्डें हैं जिन में कनाडियन शील्ड , दक्षिण अमेरिकन शील्ड , अंगारा शील्ड , अफ्रीकन शील्ड , भारतीय शील्ड , आस्ट्रेलियन शील्ड तथा अंटार्कटिक शील्ड प्रमुख हैं।

3. प्लेटफार्म ( Platforms ) :-

प्लेटफार्म क्रेटॉन के वे स्थिर भाग हैं जिनका निर्माण प्राचीन रवेदार भूगर्भिक चट्टानो से हुआ है इस प्रकार की अधिकांश चट्टानों पर अवसादी चट्टानों की क्षैतिज परतें बिछी हुई हैं । ये भू - भाग पिछले 60-70 करोड़ वर्षों से स्थिर रहे हैं और इन पर निमग्न ( submergence ) तथा उन्मन्ज ( emergence ) का कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता । विश्व के अधिकांश निम्न प्रदेशों का निर्माण इन प्लेटफार्मों पर ही आधारित है । प्रीकेम्ब्रियन कल्प के प्लेटफार्म ( केटॉन ) उत्तर अमेरिका , पूर्वी यूरोप . साइबेरिया , दक्षिण अमेरिका , अफ्रीका , अरब , भारत , पूर्वी चीन , दक्षिणी चीन तथा आस्ट्रेलिया में पाए जाते हैं।
यद्यपि समुचय तौर पर ऊपरी चट्टानें क्षैतिज परतों में व्यवस्थित हैं , तथापि स्थानीय स्तर पर कुछ चट्टानों पर बलन एवं भ्रंश का प्रभाव देखने को मिलता है और गुम्बदों एवं बेसिनों का निर्माण होता है । ऊपरी चट्टानों में बलुआ पत्थर , शेल तथा चूना पत्थर की प्रधानता है । इनका निक्षेप प्राचीन उथले समुद्रों में हुआ था । ये निक्षेप बाद में पृथ्वी की हलचलों के कारण समुद्र से बाहर निकल आए । इस प्रक्रिया में प्लेट विवर्तनिकी का महत्वपूर्ण योगदान माना गया है । 

4. पर्वतनी पेटियां ( Orogenic Belts ) :-

Orogenesis ग्रीक भाषा के दो शब्दों Oros mountain ( पर्वत ) तया Genesis = उत्पत्ति के योग से बना है । अतः पर्वतनी पेटियां वे पेटियां हैं जो पर्वतों के निर्माण से संबंधित हैं । ये पेटियां रैखिक अथवा चापाकार रूप में हैं जो महाद्वीपों के किनारों पर पाई जाती हैं । रॉकी एण्डीस तथा अल्प्स - हिमालय की पेटियां पर्वतनी पेटियों के मुख्य उदाहरण हैं । ये पृथ्वी के अस्थिर भाग हैं जहां पर उत्थान से अब भी भूआकृतिक परिवर्तन हो रहे हैं । अन्य पेटियों में विरूपण ( deformation ) की क्रिया बहुत पहले ही समाप्त हो गई थी परंतु फिर भी इनमें विभिन्न प्रकार की भूआकृतियां पाई जाती हैं । पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका का अप्लेशियन पर्वत , पूर्वी आस्ट्रेलिया का ग्रेट डिवाइडिंग रेंज ( Great Dividing Range ) तथा रूस का यूराल पर्वत इसके प्रमुख उदाहरण हैं । पर्वतनी पेटियों की स्थिति के संबंध में निम्नलिखित दो तथ्य उल्लेखनीय हैं :
( i ) विश्व के अधिकांश नवीन बलन पर्वत महाद्वीपों के किनारों पर स्थित हैं । इसके प्रमुख उदाहरण रॉकी , एण्डीज तथा अल्प्स- हिमालय हैं । अल्प्स- हिमालय का निर्माण टेथिस सागर के अवसाद में बलन पड़ने से हुआ । टेथिस सागर अंगारालैंड तथा गोंडवानालैंड के बीच स्थित था । इन पर्वतों की स्थिति से इस बात का संकेत मिलता है कि इनका निर्माण महाद्वीपों के किनारों पर संचित बलों के कारण हुआ है । 
( ii ) बहुत से प्राचीन बलन पर्वत समुद्र तक विस्तृत हैं और महाद्वीपों के किनारों पर अचानक समाप्त हो जाते हैं । उत्तरी अप्लेशियन पर्वत , स्कॉटलैंड के पर्वत तथा उत्तर अफ्रीका के एटलस पर्वत महाद्वीपों के बाह्य किनारों पर अचानक लुप्त हो जाते हैं । इससे इस बात का संकेत मिलता है ये सभी पर्वत प्राचीन काल में इकट्ठे थे परंतु महाद्वीपीय विस्थापन के कारण अलग - अलग हो गए ।

5. मैदानः-

मैदान वह निम्न भूमि है जिसका तल प्रायः तरंगित ( undulding ) हो और समुद्रतल से इस की ऊंचाई 150-200 मीटर से अधिक न हो । फिन्च और द्विवार्था के अनुसर , " मैदान शब्दावली का प्रयोग उन सभी भू - भागों के लिए किया जाता है जिन की समुद्र तल के संदर्भ में ऊंचाई कम हो और स्थानीय उच्चावच 500 फुट ( लगभग 152 मीटर ) से अधिक न हो । ' ' ' सीमेन के अनुसार , " मैदानों का उच्चावच निम्न होता है और इनमें ढाल की अपेक्षा समतल भूमि अधिक होती है । मैदान अनेकों प्रकार के होते हैं और उनका वर्गीकरण कई विधियों से किया जा सकता है । परंतु निम्नलिखित वर्गीकरण यथैष्ट रूप से मान्य है :
( i ) संरचनात्मक मैदान ( Structural Plains ) 
( ii ) अपरदनात्मक मैदान ( Erosional Plains )
(iii ) निक्षेपात्मक मैदान ( Depositional Plains)
महासागरीय भूपर्पटी ( Oceanic Crust ):-
महासागरीय भूपर्पटी की औसत मोटाई 5 से 12 किमी .तथा इसका औसत घनत्व 3.0 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है । अर्थात इसकी मोटाई महाद्वीपीय भूपर्पटी से कम परंतु इसका घनत्व महाद्वीपीय भूपर्पटी से अधिक होता है । इस भूपर्पटी का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें एकरूपता बहुत पाई जाती है । इसकी परिच्छेिदिका के अध्ययन से विदित होता है कि यह भूपर्पटी निम्नलिखित चार स्तरों में बंटी हुई है

परत -1 की मोटाई तथा संरचना में काफ़ी विविधता पाई जाती है । यह परत अवसादी शैलों की बनी हुई है , जिसमें सूक्ष्म समुद्री जीवों के अवशेषों की बहुलता है । समुद्रों में जलचारी जीवों के ढांचे एक के ऊपर एक परतों के रूप में एकत्रित होते रहते हैं और कालांतर में चुनायुक्त चट्टानों का निर्माण होता है । अतः इनमें कालकेरियस ( Calcareous ) सिलिकामय ( Sliceous ) तथा लाल मृत्तिका ( red clay ) की प्रधानता होती है । इस परत में आग्नेय चट्टानें भी पाई जाती हैं जिनकी मोटाई एवं संरचना में एकरूपता होती है ।
परत -2 बैसाल्ट की बनी हुई होती है जो सामान्यतः से 2.5 किमी मोटी होती है । यहां का बैसाल्ट प्रवाह तकिए के आकर ( Pillow shaped ) होता है जो यहां की विदरो ( Fissures ) से प्राप्त होता है । बाद में यह बैसाल्ट जम कर डाइक ( dyke ) का रूप धारण कर लेता है । पिलो लावा सागरीय नितल पर ज्वालामुखी उद्गार का द्योतक है । 
परत -3 में लगभग सभी स्थानों पर डाइक पाए जाते हैं । 
परत -4 में मोटे दानों वाला गेब्रो मिलता है । गेनो के नीचे पेरीडोटाइट ( peridolites ) सीमा बनाती है । इसे ऊपरी मेंटल का भाग माना जाता है । भूपपर्टी एवं मेंटल के बीच महोरोविसिस असातत्य सीमा बनाती है । महासागरीय नितल पर अनेक आकृतियां पाई जाती हैं जिन में महाद्वीपीय मग्न तट , महाद्वीपीय मग्न ढाल , महासागरीय गहरे मैदान गर्त , कटक , तथा विभिन्न प्रकार की पहाड़ियां सम्मिलित हैं।

महासागरीय भूपर्पटी की संरचना ( Composition of Oceanic Crust ):-

महासागरीय भूपर्पटी में कई रासायनिक तत्व पाए जाते हैं , जिनमें सिलिकॉन डाई ऑक्साइड , टिटेनियम डाई ऑक्साइड , एल्युमिनियम ऑक्साइड , फैरस ऑक्साइड , मैग्नस ऑक्साइड , मैग्नीशियम ऑक्साइड , कैल्शियम ऑक्साइड , पोटेशियम आक्साइड , फास्फोरस पॉलोक्साइड आदि प्रमुख हैं । महाद्वीपीय तथा महासागरीय भूपर्पटी में अन्तरः महाद्वीपीय एवं महासागरीय भूपर्पटी में अन्तर उनकी मोटाई , आयु , चट्टानों की प्रकृति विरूपण ( deformation ) तथा उच्चाक्य के आधार पर स्पष्ट किया जाता है।

संक्रमण भूपर्पटी ( Transitional Crust ):-

यह महाद्वीपीय तथा महासागरीय भूपर्पटी के बीच का भाग है । यह प्रायः उन महाद्वीपीय तटों के नीचे होता है जहां तटीय सागर ( Marginal Seas ) तथा द्वीप अधिक हो संरचना , मोटाई , घनत्व तथा भूकम्पीय तरंगों की गति की दृष्टि से इसकी स्थिति महाद्वीपीय तथा महासागरीय भू - पृष्ठों के बीच की होती है । 

भूपर्पटी का उद्गम एवं विकास Origin and Evolution of the Earths Crust ):-

विद्वानों का विचार है कि जब अब से लगभग 4.5 से 5 अरब वर्ष पहले पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तो इसका तापमान बहुत अधिक था प्रारम्भ में यह गैस अवस्था में थी और बाद में यह ठंडी होकर तरल अवस्था में आई । पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास के प्रारम्भिक चरण में इस पर ठोस आवरण का निर्माण नहीं हुआ था । महाद्वीप और महासागर नहीं बने थे और जीवन का अविर्भाव भी नहीं हुआ था । प्रीकेम्ब्रियन कल्प तक पृथ्वी लगभग निर्जीव थी
विश्व की प्राचीनतम चट्टानें 3.8 अरब वर्ष पुरानी हैं । इनमें से अधिकांश चट्टानें कायान्तरित अवसादी चट्टानें हैं । इसका अभिप्राय यह है कि इस समय तक महासागरों का निर्माण हो चुका था और कुछ उच्च महाद्वीपीय प्लेटफार्मों की रचना भी पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास के प्रारम्भिक चरण में हो चुकी थी । आद्य ( Archean कल्प की कायान्तरित चट्टानों के विश्लेषण से पता चलता है कि इन चट्टानों में लगभग 2.7 किमी . की गहराई पर 5 से 8 किलावार पर 550 से 8000 से . तापमान पर रवों ( crystals ) का निर्माण हो चुका था । इस के नीचे 35 किमी . मोटी भूपर्पटी थी । अतः उस समय 50-70 किमी . मोटी महाद्वीपीय भूपर्पटी का निर्माण हो चुका था । अनुमान है कि भूपर्पटी की रचना 4 अरब वर्ष तक नहीं हुई थी ।
भूपर्पटी की उत्पत्ति को निम्नलिखित तीन वर्गों के सिद्धान्तों अथवा मॉडलों के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है :

पृथ्वी की विषमांग अभिवृद्धि का मॉडल Inhomogeneous Earth Accretion Model ):-

इस मॉडल के अनुसार शुरू में गर्म नीहारिका थी , जिसका तापमान निरंतर कम हो रहा था । इससे नीहारिका के बहुत से पदार्थ का संघनन हो गया और उसकी अभिवृद्धि हुई । ठोस कण आपस में टकराए और सूर्य के गिर्द ग्रहों का निर्माण हुआ । नीहारिका के कणों के संघनन तथा अभिवृद्धि के कारण पृथ्वी की परतीय सरंचना हुई जिसका क्रोड लोहे ,मैंटल सिलिकेट का तथा भूपर्पटी संघनित चट्टानों का बना ।

विनाश संबंधी मॉडल ( Catastrophic Model ):-

पृथ्वी के भूगर्भिक इतिहास से यह विदित होता है कि संभवतः पृथ्वी पर बड़े पैमाने पर बमवर्षा हुई थी । आज भी पृथ्वी के कई भागों में उल्कापात के प्रमाण मिलते हैं । इससे बड़ी मात्रा में ऊर्जा पैदा हुई
और पृथ्वी का पदार्थ स्थानीय रूप से पिघल गया । इससे मैग्मा बन गया जिसने बाद में जम कर पृथ्वी की प्रारम्भिक भूपर्पटी का निर्माण किया । जब बड़े - बड़े आकाशीय पिण्ड पृथ्वी से टकराए तो विशाल गत ( Craters ) का निर्माण हुआ और इससे पैदा होने वाली ऊर्जा पृथ्वी को स्थानांतरित हो गई । कुछ गर्त 10 किमी . से भी अधिक गहरे थे । गर्त के नीचे दाब कम हो गया और गर्त के नीचे का मैटल पिघल गया । गर्त के किनारे का अपरदन हुआ और गर्त मैग्मा से भर गया । गर्त की अवसादी एवं आग्नेय चट्टाने समस्थिति के अनुसार ऊपर को उठ गई और आद्य महाद्वीप का जन्म हुआ । बमवर्षा के प्रभाव से आद्य महाद्वीप के नीचे संवाहनीय सेल उत्पन्न हुए होंगे और मैग्मा के एकत्रित हो जाने से भूपर्पटी मोटी हो गई होगी । सघट्टन Collision ) से मैटल में प्लूम ( Plume ) का जन्म हुआ , जिसने भावी महाद्वीपीय केन्द्रों ( nuclei ) को आधार प्रदान किया । सम्भवतः आर्कियन युग के महाद्वीपीय केन्द्र मैंटल के प्लूम से ही बने थे।

प्लेट विवर्तनिकी मॉडल ( Plate Tectonics model ) :-

प्लेट विर्वर्तनिकी मॉडल के अनुसार यूपर्पटी का उद्गम एवं विकास ऊपरी मैटल से महाद्वीपीय केन्द्रों ( Continental nuclei ) के रूप में हुआ है । इन केन्द्रों के आस - पास पदार्थ की अभिवृद्धि होती गई और भूगर्भिक विकास के साथ - साथ भूपर्पटी का विकास होता गया । आद्य भूपर्पटी मुख्यत : महासागरीय थी और महाद्वीपीय भाग का विकास नहीं हुआ था अपने जन्म से ही पृथ्वी ठंडी होती आई है प्रारम्भ में पृथ्वी के आन्तरिक भाग में ऊष्मा अधिक थी और उस समय का मैटल आज के मैंटल से अधिक गर्म और कम गाढ़ा था । तथा उसमें संवहन क्रिया अधिक थी । अतः मैंटल में बहुत से ऊष्मा स्थान ( Hot spots ) थे , जो तरल मैग्मा से युक्त थे । इसमें से बहुत से ऊष्मा बेसाल्ट की परत के निर्माण में लग गई । इस प्रकार आद्य पृथ्वी में अत्याधिक ज्वालामुखी उद्गार की कल्पना की गई है । अधिकांश उद्गार महासागरों के नीचे होने की संभावना व्यक्त की गई है । मैंटल में भीषण संवहन क्रिया हुई और बहुत सा मैग्मा समुद्र की तली ( Sea bed ) पर जमा हो गया और बाद में समुद्र तल ( Sea level ) से ऊपर की ओर चला गया । संवाहनीय धाराओं की वापसी पर बहुत सा मैग्मा नीचे की ओर चला गया और नीचे की ओर एक गर्त सा बन गया । मैग्मा से बनी ग्रेनाइट चट्टानें विश्व की शील्डों में अब भी मौजूद हैं । जो ठोस लावा नीचे नहीं जा सका वह किसी द्वीप या महाद्वीप में परिवर्तित हो गया । इन द्वीपों एवं महाद्वीपों पर सामान्य अपरदन का कार्य हुआ और अवसाद निचले इलाकों में जमा हो गया ऊपर उठते हुए गैस तथा सिलिका के कारण इस अवसाद के लक्षण परिवर्तित हो गए । पदार्थ के इस चक्रण ( recycling ) से कम घनत्व की ग्रेनाइट चट्टानों का निर्माण हुआ।
पृथ्वी विकास की इस स्थिति में प्लेट विर्वतनिकी की प्रक्रिया शुरू हुई । पहले से बने महाद्वीपीय ग्रेनाइट के भाग नीचे डूबने में असमर्थ थे । शक्तिशाली संवहनीय धाराओं से महाद्वीपों के नीचे प्रविष्ठन ( Subuction ) की प्रक्रिया शुरू हुई , जिससे प्रविष्ठित पदार्थ पिघल गया । प्लेटों के निरन्तर अभिसरण ( Convergence ) से अवसादों में बलन पड़ गया और पर्वती पेटियों ( Orogenic belts ) का निर्माण हुआ । पर्वतों के आधार पर ग्रेनाइट एकत्रित हो गई और कायान्तरण हुआ । अंत में अपरदन तथा समस्थिति ( Isostasy ) में संतुलन पैदा हो गया और पर्वतों की आधारी चट्टानें भूतल पर आ गईं । इन पर अपक्षय का प्रभाव पड़ा और अपक्षय से प्राप्त पदार्थ महाद्वीपों के किनारों पर जमा हो गया । और इसी क्रम की पुनरावृत्ति होने लगी । इस प्रकार महाद्वीपों का विस्तार उनके किनारों पर अवसाद के निक्षेप के कारण हुआ । सक्रिय द्वीपों की स्थिति तथा महाद्वीपों के किनारों पर पर्वतों का विकास इसके दो मुख्य प्रमाण हैं । जब स्थलमडलीय प्लेटों ( lithospheric plates ) का अपसारण होता है , अर्थात वे एक - दूसरे से दूर जाती हैं तो अंर्त - महाद्वीपीय दरारों का निर्माण होता है । यदि प्लेटों के अपसारण की क्रिया काफी देर तक सक्रिय रहती है तो महाद्वीप एक - दूसरे से दूर चले जाते हैं । और नई भूपर्पटी का निर्माण होता है । उपरोक्त विवरण से विदित होता है कि इस मॉडल के आधार पर महाद्वीपीय एवं महासागरीय दोनों प्रकार की भूपर्पटी के निर्माण की प्रक्रिया को स्पष्ट किया जा सकता है । इसी प्रकार से प्लेट विवर्तनिकी के आधार पर महाद्वीपों के किनारों के विस्तार को भी समझा सकता है । जब पूर्व - निर्मित भूपर्पटी के केन्द्रों ( nuclei ) पर पर्वत बनते हैं तो प्लेटों के आपस में टकराने से महाद्वीपों के किनारों का विस्तार होता है।

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