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पुरातात्विक उत्खनन (archaeological excavations) क्या है और इसके प्रकार कितने हैं।

पुरातात्विक उत्खनन क्या है और इसके प्रकार कितने हैं।
What is archaeological excavation and its types.


पुरातात्त्विक उत्खनन मानव के इतिहास की रचना करने में सहायक अवशेष को खोजने की एक महत्त्वपूर्ण विधि है। पुरातात्त्विक उत्खनन का उद्देश्य मानव के इतिहास के संबंध में ऐसे तथ्य एवं आँकड़े एकत्र करना है जिनके अध्ययन तथा विश्लेषण के आधार पर मानव के संपूर्ण इतिहास की उचित संरचना की जा सके।

 मानवकृत पुरावेषों को खोज निकालने की पुरातत्व में अभी तक जितनी विधियाँ ज्ञात हैं, पुरातात्त्विक उत्खनन की विधि उनमें सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इस विधि के माध्यम से प्राप्त पुरावशेष अपने पुरातात्त्विक परिप्रेक्ष्य में मिलते हैं। उत्खनन पद्धति का विकास उन्नीसवीं शताब्दी ईसवी के पूर्व तक उत्खनन अव्यवस्थित ढंग से होते रहे हैं 

 उत्खनन की विभिन्न पद्धतियों का क्रमिक रूप में विकास हुआ। । प्रारम्भिक उत्खननकर्ताओं का उद्देश्य समाधियों तथा प्राचीन टीलों को खोदकर पुरानी मूल्यवान पुरानिधियों को खोजना था इसलिए स्तरीकरण आदि के सम्बन्ध में प्राय: कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था।

पुरातात्त्विक उत्खनन की विधियों क्या है?

1. लम्बवत् अथवा उर्ध्वाधर उत्खनन (Vertical Excavation)

2. क्षैतिज उत्खनन (Horizontal Excavation)

1. लम्बवत् अथवा उर्ध्वाधर उत्खनन (Vertical Excavation):-


लम्बवत् उत्खनन का आशय किसी सीमित क्षेत्र में गहराई तक उत्खनन करने से है। लम्बवत् अथवा शैर्षिक उत्खनन किसी पुरास्थल पर संस्कृतियों के क्रम को जानने के - लिए लम्बवत् अथवा उर्ध्वाधर उत्खनन किया जाता है। जिससे उस स्थल की सभी संस्कृतियों अथवा अवस्थाओं का समुचित अनुक्रम ज्ञात हो सके इस प्रकार के उत्खनन के फलस्वरूप उस स्थल का संस्कृति मान या समय-मान (Time Scale) तैयार किया जा सकता है। 

इस विधि में किसी पुरास्थल के सीमित क्षेत्र में प्राकृतिक स्तर के मिलने तक उत्खनन किया जाता है। उत्खनन से प्राप्त विभिन्न संस्कृतियों की विशेषताओं तथा पुरावशेषों एवं पुरानिधियों सहित एक अभिलेख (Record) तैयार कर लिया जाता है।

 विभिन्न संस्कृतियों का पूर्वापर-क्रम(precedence order,), पारस्परिक सम्बन्ध तथा सापेक्ष समय (relative time) का अनुमान लगाया जा सकता है। और इस उत्खनन से यह जानकारी मिलती है कि किसी प्रागैतिहासिक पुरास्थल (prehistoric site) या ऐतिहासिक टीले के क्षेत्र में किस संस्कृति के लोग कब आये, उनकी संस्कृति का अन्त कब हुआ। इसके अलावा भी बहुत कुछ सीखा देता हैं।

कई पुरास्थलों के उत्खनन से यदि एक ही प्रकार का सांस्कृतिक अनुक्रम प्राप्त हो, तो हमें उस संस्कृति के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त हो सकती है। किन्तु इस विधि के उत्खनन से अपेक्षाकृत एक सीमित क्षेत्र में खुदाई होने के कारण किसी पुरास्थल अथवा संस्कृति की विस्तृत जानकारी नहीं हो पाती है। मानव समाज के अनेक पक्षों जैसे आर्थिक एवं प्रशासनिक आदि के विषय में  जानकारी नहीं मिल पाती है।

2. क्षैतिज उत्खनन (Horizontal Excavation):-

क्षैतिज विधि से उत्खनन किसी संस्कृति की विस्तृत एवं अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है।  *मार्टीमर होलर के अनुसार*  'किसी संस्कृति का सर्वांगीण (comprehensive), परिचय प्राप्त करने के लिए जब किसी पुरास्थल के काल-विशेष से सम्बद्ध अथवा अधिकांश निक्षेप का उत्खनन किया जाता है, तो उसे क्षैतिज उत्खनन कहा जाता है।' 

क्षैतिज उत्खनन लम्बवत् या ऊर्ध्वाधर उत्खनन से जब किसी संस्कृति अथवा पुरास्थल - का अनुक्रम ज्ञात हो जाता है, तब उसके समग्र स्वरूप के विषय में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। तकनीकी,आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा की विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उस संस्कृति को जीवन्त बनाया जा सकता है।

किसी भी पुरास्थल के उत्खनन के लिये दोनों विधियों का पृथक-पृथक प्रयोग नही किया जा सकता है उर्ध्वाधर एवं क्षैतिज उत्खनन में सम्बन्ध पुरातत्त्वविदों ने उर्ध्वाधर एवं क्षैतिज इन दोनों उत्खनन पद्धतियों को एक दूसरे की पूरक एवं सहायक माना है। सर्वप्रथम उर्ध्वाधर उत्खनन होना चाहिए इसके पश्चात् क्षैतिज विधि से उत्खनन किया जाना चाहिए।'

 संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि दोनों विधियों का संयुक्त रूप से उपयोग न करने से किसी भी पुरास्थल के समग्र इतिहास की जानकारी नहीं हो सकती है। उर्ध्वाधर उत्खनन से जहाँ किसी पुरास्थल की विभिन्न संस्कृतियों का अनुक्रम ज्ञात होता है, वहीं दूसरी ओर क्षैतिज उत्खनन से संस्कृति अथवा सभ्यता की पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

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